SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६ १८५ तथा वैक्रियषट्क, आहारकद्विक, तीर्थंकरनाम और यश कीर्ति के सिवाय नामकर्म की सभी प्रकृतियों एवं नीचगोत्र की पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून २ / ७ सागरोपम जघन्य स्थिति है आदि । प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के निर्देश में वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति को नहीं बताया है, इसलिए अब उसकी स्थिति का पृथक् से कथन करते हैं । क्रिषट्क की जघन्य स्थिति वे उव्विछक्कि तं सहसताडियं जं असन्निणो तेसिं । पलियासंखंसूणं ठिई अबाहूणि य निगो ॥ ४६ ॥ शब्दार्थ - विछक्कि वैक्रियषट्क की, तं - पूर्वोक्त, सहसताडियंहजार से गुणा करने पर, जं-जो, असन्निणो-असंज्ञियों को, तेसि — उनके, पलियासंखं सूणं -- पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून, ठिई — स्थिति, अबाहूणि - अब्राधान्यून, य - और, निसेगो - निषेकरचना | - गाथार्थ - वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर जो भाग प्राप्त हो, उसको हजार से गुणित करने पर जो लब्ध आये वह पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति है । क्योंकि उसके बंधक असंज्ञी पंचेन्द्रिय हैं और अबाधाकाल हीन निषेकरचनाकाल है । विशेषार्थ - कर्मों की जघन्य स्थिति बताने के पूर्वोक्त नियम से वैक्रियषट्क की जघन्य स्थिति प्राप्त नहीं होती है। अतः कारण सहित इस गाथा में उसका पृथक् से निर्देश किया है देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर और वैक्रिय अंगोपांग रूप वैक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति को मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति द्वारा भाग देने पर जो २ / ७ सागरोपम लब्ध प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy