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________________ पंचसंग्रह : ५ अर्थात् अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर प्राप्त लब्ध, उसमें से पल्य के असंख्यातवें भाग को कम करने पर जो बाकी रहे, उतना शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध है । विस्तार से जिसका विवेचन इस प्रकार है १८४ वर्ग - स्वजातीय कर्मप्रकृतियों के समूह को कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण की पांच प्रकृतियों का समूह ज्ञानावरणवर्ग, दर्शनावरण की नौ प्रकृतियों का समूह दर्शनावरणवर्ग, वेदनीय की दो प्रकृतियों का समूह वेदनीयवर्ग, दर्शनमोहनीय की प्रकृतियों का समुदाय दर्शनमोहनीयवर्ग, चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों (कषायमोहनीय प्रकृतियों) का समुदाय चारित्रमोहनीयवर्ग, नोकषायमोहनीय प्रकृतियों का समुदाय नोकषायमोहनीयवर्ग, नामकर्म की प्रकृतियों का समुदाय नामवर्ग, गोत्रकर्म की प्रकृतियों का समुदाय गोत्रकर्मवर्ग और अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियों का समुदाय अन्तरायवर्ग । इन वर्गों में मात्र मोहनीयकर्म के तीन वर्ग हैं और शेष ज्ञानावरण आदि का एक-एक वर्ग है । इन वर्गों में जो तीस कोडाकोडी सागरोपम आदि प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति है, उसको मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी से भाग देने पर जो लब्ध आये उसमें से पल्योपम का असंख्यातवां भाग - कम करने पर जो रहे, वह निद्रा आदि शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध समझना चाहिये । जैसे कि- - दर्शनावरण और वेदनीय कर्म की तीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें मिथ्यात्व की स्थिति से भाग देने और शून्य को शून्य से हटाने पर जो ३/७ सागरोपम प्राप्त होते हैं वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून निद्रापंचक और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति हैं । इसी प्रकार मिथ्यात्वमोहनीय की पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम जघन्य स्थिति है । संज्वलनचतुष्क के सिवाय बारह कषाय की पत्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून ४/७ सागरोपम जघन्य स्थिति है, पुरुषवेद के अतिरिक्त शेष आठ नोकषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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