________________
२१८
पंचसंग्रह : ५ शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के सादि और अध्र व होने के कारण का विचार किया है। __ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और संज्वलनचतुष्क इन अठारह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक जीव उनउन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय करता है। उनमें से संज्वलनचतुष्क का अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में और शेष प्रकृतियों का सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में बंधविच्छेद करता है। क्योंकि ये सभी प्रकृतियां अशुभ हैं और अशुभ प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध विशुद्ध परिणामों के होने पर होता है। क्षपक जीव अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला है, इसलिए पूर्वोक्त अठारह प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध क्षपक को ही होता है, अन्यत्र नहीं होता है। उनका काल एक समय का है, इसलिये वह सादि और सांत है। _ 'सेसधुवियाणं'-अर्थात् शेष ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध तद्योग्य विशुद्ध परिणाम वाले पर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पति रूप बादर एकेन्द्रिय जीव कितनेक काल तक करते हैं। शेष एकेन्द्रिय जीव तथास्वभाव के कारण नहीं करते हैं । अन्तमुहूतं के बाद वे ही जीव अजघन्य स्थितिबंध करते हैं। अतः क्रमपूर्वक उनके होने से वे दोनों सादि-सांत हैं । ___इस प्रकार से जघन्यबंध के सादि, सांत होने के कारण को जानना चाहिए। ____ अब पूर्वोक्त अठारह प्रकृतियों के अजघन्य स्थितिबंध के चार प्रकारों का और शेष ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्टादि के सादि और सांत विकल्पों का एवं अध्र वबंधिनी प्रकृतियों के चारों प्रकारों के सादि और सांत ये दो विकल्प होने का विचार करते हैं।
अट्ठाराणऽजहन्नो उवसमसेढीए परिवडंतस्स । साई सेसवियप्पा सुगम अधुवा धुवाणंपि ॥६२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org