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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६५ ४४५. तेतीस सागरोपम पर्यन्त रहे यानी उतने काल सम्यक्त्व का पालन करे और उतने काल तक मनुष्यद्विक-मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और वज्रऋषभनाराचसंहनन को बन्ध द्वारा पुष्ट करे और उसके बाद वह सातवीं पृथ्वी का नारक जीव यदि अनन्तर समय में मिथ्यात्व को प्राप्त करेगा तो उस बन्धकाल के चरम रूप उस समय में यानि चतुर्थ गुणस्थान के चरम समय में उस नारक के मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होतो है । तथाबेछावट्ठिचियाणं मोहस्सुवसामगस्स चउक्खुत्तो। सम्मधुवबारसण्हं खवगंमि सबंध अन्तम्मि ॥१६॥ शब्दार्थ-बेछावट्ठिचियाणं-दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त, मोहस्सुवसामगस्स-मोहनीयकमं की उपशमना करने वाले के, चउक्खुत्तो-चार बार, सम्म-सम्यक्त्व, ध्र वबारसण्हं-ध्र वबंधिनी बारह प्रकृतियों की, खवगंमि-क्षपक के, सबंध अंतम्मि - अपने बंध के अंत समय में । १ सप्तम नरक पृथ्वी में जाने वाला जीव सम्यक्त्व का वमन करके ही जाता है और नया सम्यक्त्व पर्याप्त-अवस्था में उत्पन्न होता है। इसीलिए जन्म के अनन्तर अन्तयमुहूर्त जाने के बाद सम्यक्त्व उत्पन्न होने का कहा है । अन्तमुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम पर्यन्त उसको सम्यक्त्व रह सकता है और उस स्थिति में निरंतर उक्त तीन प्रकृतियों का बंध कर सकता है, जिससे उस जीव को उक्त तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का अधिकारी बताया है। कदाचित् यह कहा जाये कि अनुत्तर देव पूर्ण तेतीस सागरोपम पर्यन्त उक्त प्रकृतियों का निरन्तर बंध करते है, तो फिर उनको उत्कृष्ट सत्ता का अधिकारी क्यों नहीं बताया हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि अनुत्तर देवों की अपेक्षा नारक में योग बहुत अधिक होता है और योगानुसार प्रदेशबंध होता है, जिससे वह अधिक पुद्गलों को ग्रहण कर सकता है । इसीलिए सप्तम पृथ्वी के नारक को ग्रहण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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