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पंचसंग्रह : ५
अध्यवसायों के द्वारा वैक्रियद्विक और देवद्विक को बन्ध द्वारा पुष्ट करके देवगति में जाने के सन्मुख हुआ जीव वैक्रियद्विक और देवद्विक के बन्ध के अंत समय में उन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी जानना चाहिये। तथातमतमगो अइखिप्पं सम्मत्तं लभिय तंमि बहुगद्ध । मणुयदुगस्सुक्कोसं सवज्जरिसभस्स बंधते ॥१६४॥
शब्दार्थ-तमतमगो--तमस्तमापृथ्वी का नारक, अइटिप्पं—अति शीघ्र, सम्मत-सम्यक्त्व को, लभिय-प्राप्त कर, तंमि-उसमें, बहुगढ़-बहुत समय तक, मणुयदुगस्सुक्कोसं-मनुष्य द्विक का उत्कृष्ट बंध, सवज्जरिसमस्सवज्रऋषभनाराचसंहननसहित, बंधते-बंध के अंत समय में ।
गाथार्थ-तमस्तमापृथ्वी का नारक अतिशीघ्र सम्यक्त्व प्राप्त करके और उसमें बहुत समय तक रहकर मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराचसंहनन का बन्ध करे तो बन्ध के अंत में वह नारक जीव इन तीन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी है। विशेषार्थ-तमस्तमा नामक सातवीं नरकपृथ्वी का कोई नारक अतिशीघ्र वहाँ उत्पन्न होने के बाद अन्तमुहूर्त बीतने पर पर्याप्त हो सम्यक्त्व प्राप्त करके सम्यक्त्व में दीर्घकाल अर्थात् अन्तर्मुहूर्त न्यून
१ इसका कारण यह है कि संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य या तिर्यंच के
एक के बाद एक निरन्तर सात भव हो सकते हैं और उनमें क्लिष्ट परिणामों से अधिकतर नरकद्विक का बंध कर सकते हैं, जिससे वैसे जीव उसकी उत्कृष्ट सत्ता के अधिकारी हैं । वैक्रियद्विक और देवद्विक के बंध का युगलिया के भव में अधिक समय मिलता है । क्योंकि आठवां भव युगलिया का होता है और देवप्रायोग्य कर्मबन्ध करते हैं। इसलिए देवद्विक, वक्रियद्विक इन चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का अधिकारी उनको माना है।
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