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________________ पंचसंग्रह : ५ गाथार्थ-- चार बार मोहनीय का उपशम करके क्षय करने वाले के सम्यक्त्व के होने पर भी दो छियासठ सागरोपम पर्यन्त पुष्ट की गई ध्र वबन्धिनी बारह प्रकृतियों की अपने-अपने बन्ध के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ- गाथा में सम्यक्त्व-सापेक्ष बारह शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामित्व को बतलाया है मिश्रगुणस्थान के अन्तर्मुहूर्त काल अधिक दो छियासठ- एक सौ बत्तीस-सागरोपम पर्यन्त बंध द्वारा और अन्य प्रकृतियों के संक्रम द्वारा पुष्टि की गई तथा सम्यक्त्व होने पर जिनका अवश्य बंध होता है ऐसी पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छवास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुस्वर, सुभग और आदेय रूप बारह प्रकृतियों की चार बार मोहनीय का उपशमन करने के बाद मोहनीय का क्षय करने के लिये उद्यत जीव के अपने-अपने बंध के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। क्योंकि मोहनीय का उपशमन करने वाला जीव अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों को गुणसंक्रम द्वारा पूर्वोक्त बारह प्रकृतियों में संक्रांत करता है। इसीलिये चार बार उपशमन करने के बाद क्षय करने वाले जीव को उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामी बताया है। तथा सुभथिरसुभधुवियाणं एवं चिय होइ संतमूक्कोसं । तित्थयराहाराणं नियनियगुक्कोसबंधते ॥१६६॥ शब्दार्थ-शुभ-शुभनाम, थिर-स्थि रनाम, सुभधुवियाण-शुभ ध्र व बंधिनी प्रकृतियों की, एवं चिय- इसी प्रकार, होइ-होती है, संतमुक्कोसं -उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता, तित्थयराहाराणं-तीर्थकर और आहारक नामकर्म की, नियनियग-अपने-अपने, उक्कोसबंधते-उत्कृष्ट बंध काल के अंत समय में । गाथार्थ-शुभनाम, स्थिरनाम और शुभ ध्र वबन्धिनी प्रकृतियों की इसी प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है तथा तीर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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