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बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६६
४४७ कर और आहारक नामकर्म की अपने-अपने उत्कृष्ट बन्धकाल के अंत समय में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। विशेषार्थ--शुभनाम, स्थिरनाम तथा तैजसकार्मणसप्तक, शुभवर्णादि ग्यारह, अगुरुलघु और निर्माण रूप ध्र वबन्धिनी शुभ बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता भी पूर्वोक्त प्रकार से ही यानि पूर्व में जिस प्रकार से पंचेन्द्रियजाति आदि बारह प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता बताई है उसी प्रकार समझना चाहिये, किन्तु यहाँ इतना विशेष है कि इन पूर्वोक्त बाईस प्रकृतियों की चार बार मोहनीय का उपशम करने के बाद अतिशीघ्र मोहनीय का क्षय करने के लिये उद्यत हुए जीव के उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है।
तीर्थकरनाम और आहारकसप्तक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता अपनेअपने उत्कृष्ट बन्धकाल के अंत समय में होती है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि कोई गुणितकर्माश जीव जब देशोन दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागरोपम पर्यन्त तीर्थंकरनाम को बन्ध के द्वारा पुष्ट करे तब उस तीर्थंकरनाम के बन्ध के अंत समय में तीर्थंकरनाम की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। और जिसने आहारकसप्तक को भी देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त बारंबार बन्ध द्वारा पुष्ट किया हो, उसको
१ तीर्थकर नामकर्म का निकाचित बंध होने के बाद प्रतिसमय उसका बंध होता रहता है। तीर्थकरनाम का तीसरे भव में निकाचित बंध होता है। पूर्वकोटि की आयु वाला कोई जीव अपनी कम में कम जितनी आयू जाने के बाद निकाचित कर सकता है, तब तेतीस सागरोपम आयु के साथ अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो और वहाँ से च्यवकर चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थंकर हो और उस भव में जब तक आठवां गुणस्थान प्राप्त न करे तब तक उसका बंध होता र ता है. इसीलिये उतना काल बताया है। तीर्थंकर की उत्कृष्ट आयु चौरासी लाख पूर्व की होती है, इसीलिये चौरासी लाख पूर्व की आयु से तीर्थकर होने का संकेत किया है।
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