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________________ ४४८ पंचनसंह : ५ आहारकसप्तक की उसके बन्धविच्छेद के समय उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । तथातुल्ला नपुंसगेणं एगिदिय थावरायवुज्जोया। सूहमतिगं विगलावि य तिरिमणुयचिरच्चिया नवरि ॥१६७॥ शब्दार्थ-तुल्ला-तुल्य, नपुंसगेणं-नपुसकवेद के, एगिदियथावरायवुज्जोया-एकेन्द्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम और उद्योतनाम की, सुहुमतिगं-सूक्ष्मत्रिक, विगलावि-विकलत्रिक भी, य-और, तिरिमण्य-तिर्यंच और मनुष्य के, चिरच्चिया-दीर्घकाल तक पुनः पुनः बंध द्वारा संचित, नरि-किन्तु । गाथार्थ-एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, आतप और उद्योत नामकर्म की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता नपुंसकवेद के तुल्य समझना चाहिये तथा सूक्ष्मत्रिक और विकलत्रिक की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता दीर्घकाल तक पुनः पुनः बन्ध द्वारा संचित करने वाले मनुष्यों और तिर्यंचों के जानना चाहिये। विशेषार्थ-गाथा में मुख्यरूप से तिर्यंचप्रायोग्य प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामित्व का निर्देश किया है कि एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप और उद्योत इन चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता 'तुल्ला नपुसगेणं'–नपुसकवेद के समान जानना चाहिये । अर्थात् पूर्व में जैसे ईशान देवों के अपने भव के चरम समय में नपुसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का निरूपण किया है, उसी प्रकार से उपर्युक्त चार प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता भी ईशान देवों के अपने भव के चरम समय में समझना चाहिये। इसका कारण यह है कि नपुसकवेद का बन्ध क्लिष्ट परिणामों से होता है और वैसे क्लिष्ट १ आहारकसप्तक का बंध होने के बाद अपनी बंधयोग्य भूमिका में उसका बंध होता रहता है । परन्तु उसका बंध सातवें गुणस्थान में होता है और वह गुणस्थान मनुष्यगति में पाया जाता है। अतएव देशोन पूर्वकोटि में से जितना अधिक काल हो सकता है, उतना जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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