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________________ बंधबिधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३ १३१ 'साइ अधुवो नियमा'- अर्थात् जो बंध सादि हो, जिसका प्रारम्भ हो, वह अवश्य ही अध्र व होता है । इसका कारण यह है कि सादित्व तभी घट सकता है, जब पूर्व के बंध का विच्छेद हो जाने के पश्चात् पुनः नवीन बंध का प्रारम्भ हो। इसलिए सादित्व बंधविच्छेद पूर्वक ही होता है और तभी यह कहा जा सकता है कि जो बंध सादि हो वह अवश्य निश्चित रूप से अध्रुव-सांत होता है । प्रकारान्तर से इसका फलितार्थ यह निकला कि अनादि बंध को ध्र व होना चाहिए। क्योंकि अनादि सादि के विपरीत लक्षण वाला है। लेकिन अनादि बंध में यह विशेषता है कि जीवविशेषों की अपेक्षा वह अध्र व भी है और ध्र व भी है—'जीवविसे से अणाई अधुवधुवो।' इसका कारण यह है कि समस्त संसारी जीव भव्य और अभव्य की 'अपेक्षा दो प्रकार के हैं। अत: अभव्य और भव्य रूप जीवों की अपेक्षा अनादि बंध के दो प्रकार हो जाते हैं-ध्रुव और अध्र व । अभव्य को जो बंध अनादि है वह ध्र व, अनन्त है किन्तु भव्य के अनादि बंध का भविष्य में नाश होना संभव होने से अधू व--सांत होता है । __ जो बंध ध्र व होता है, वह अवश्य ही अनादि होता है-'नियमा धुवो अणाई'। क्योंकि सर्वकाल अवस्थायी को ध्रव कहते हैं और समस्त काल पर्यंत अवस्थायित्व अनादि के बिना संभव नहीं है। अनादि के सिवाय ध्र वत्व अनन्त हो ही नहीं सकता है तथा अध्र व, सादि बंध अनन्त काल पर्यन्त रह ही नहीं सकता है। इसका कारण यह है कि ऊपर के गुणस्थानों में जाकर पूर्व के बंध का विच्छेद कर पतित होने पर पुनः बंध का प्रारम्भ किया जाये तब वह सादि कहलाता है। जैसे कि पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करने वाला जीव चाहे पतन होने पर पुनः पहले गुणस्थान में आये, परन्तु वह देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार में नहीं रहता है, अतः जब ऊपर के गुणस्थान में जाता है तब बंध का अंत करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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