SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० पंचसंग्रह : ५ मूल एवं उत्तर प्रकृतियों एवं समस्त उत्तर प्रकृतियों के बंधादि एवं उनके भूयस्कारों आदि प्रकारों को बतलाने के बाद अब सादि आदि भेदों का कथन करते हैं । सादि आदि के चार प्रकारों के नाम पूर्व में बतलाये जा चुके हैं - सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिसके लक्षण इस प्रकार हैं- जो बंधादि आदि - आरम्भ, शुरूआत युक्त हो वे सादि, जिनकी, आदि न हो वे अनादि, भविष्य में जो बंधादि सदैव रहने वाले हों, जिनका कभी नाश नहीं होता है वे ध्रुव - अनन्त और कालांतर में जिनका विच्छेद होता है वे अध्रुव-सांत कहलाते हैं । इन चार भेदों में से जिसके साथ जिसका सद्भाव अवश्यंभावी है, इसका निरूपण करते हैं । सादि आदि बंधप्रकारों का भावाभावत्व साइ अधुवो नियमा जीवविसेसे अणाइ अधुवधुवो । नियमा धुवो अणाई अधुवो अधुवो व साई ||२३|| शब्दार्थ - साइ- सादि, अधुवो-अध्रुव, नियमा- नियम से, जीवविसेसे—– जीव विशेष में, अणाई - अनादि, अधुवधुवो अध्र ुव, ध्रुव, नियम-नियम से, अवश्य, धुवो-ध्रुव, अणाई - अनादि, अधुवो - अध्र ुव अधुवो-अध्रुव, वा - और, साई - सादि, वा1- अथवा | गाथार्थ - जो बंधादि सादि हों वे नियम से अध्रुव होते हैं । किन्तु जीव विशेष की अपेक्षा अनादि बंधादि भी अध्रुव और ध्रुव होते हैं । जो ध्रुव होते हैं वे अवश्य अनादि और जो अध्रुव हैं, वे अ व रूप में रहते हैं अथवा सादि भी होते हैं । I विशेषार्थ - गाथा में परस्पर भावाभाव की अपेक्षा सादि आदि बंध प्रकार के सद्भाव का निरूपण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है १ सुगमता से बोध करने के लिए उक्त समग्र कथन का प्रारूप परिशिष्ट में देखिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy