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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६, ८७ २८७ बंध अनुत्कृष्ट है। वह अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध उत्कृष्ट प्रदेशबंध करके वहाँ से गिरने अथवा उपशांतमोहगुणस्थान में बंधविच्छेद होने के अनन्तर वहाँ से गिरने पर मन्द योगस्थानवर्ती जीव को होने से सादि है । उस स्थान को जिन्होंने प्राप्त नहीं किया है, उनकी अपेक्षा अनादि तथा अभव्य एवं भव्य की अपेक्षा क्रमशः ध्रुव और अध्र व जानना चाहिए । तथा- इन छह कर्मों के जघन्य और अजघन्य विकल्प सादि-सांत हैं। जघन्य प्रदेशबंध तो उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्प वीर्य वाले और सात कर्म के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव को एक समय मात्र होता है और दूसरे समय में उसी को अजघन्य प्रदेशबंध होता है तथा पुनः संख्यात अथवा असंख्यात काल बीतने के बाद जघन्य योग और अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद अवस्था प्राप्त होने पर प्रथम समय में जघन्य और उसके बाद के समय में अजघन्य प्रदेशबंध होता है। इस प्रकार संसारी जीव के अनेक बार जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध में परावर्तमान होते रहने से दोनों सादि-सांत हैं। इस प्रकार से मोहनीय और आयु के सिवाय शेष ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए । अब मोहनीय और आयु कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि प्रकारों की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। मोहेवि इमे एवं आउम्मि य कारणं सुगमं ॥८६॥ मोहस्स अइकिलिट्ठे उक्कोसो सत्तबंधए मिच्छे । एक्कं समयंणुक्कोसओ तओ साइअधुवाओ ॥८७।। शब्दार्थ-मोहेवि-मोहनीयकर्म के भी, इमे-ये, एवं-इसी प्रकार, आउम्मि-आप में, य-और, कारणं-कारण, सुगम-सुगम है । मोहस्स-मोहनीय का, अइकिलिछे-अति संक्लिष्ट, उक्कोसो-उत्कृष्ट, सत्तबधए-सात का बंध करने वाले, मिच्छे-मिथ्यादृष्टि, एक्कं-एक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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