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पंचसंग्रह : ५
२८८
समयं - समय, णुक्कोसओ - अनुत्कृष्ट, तओ - इसके बाद, साइअधुवाओ --
सादि,
अ
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गाथार्थ - मोहनीय कर्म के भो ये दोनों (जघन्य, अजघन्य ) इसी प्रकार जानना चाहिये तथा आयु के सम्बन्ध में तो कारण सुगम है ।
अति संक्लिष्ट परिणामी सात कर्मों का बंध करने वाले मिथ्यादृष्टि ( अथवा सम्यग्दृष्टि) के एक समय पर्यन्त उत्कृष्ट और उसके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशबंध होता है, इसलिए ये दोनों सादि, अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ -- ग्रन्थकार आचार्य ने इस डेढ़ गाथा में मोहनीय और आयु कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों के सादि आदि विकल्पों का प्रतिपादन किया है ।
सर्वप्रथम मध्यदीपकन्याय से पूर्व में आये जघन्य, अजघन्य पद को यहाँ ग्रहण करके बताया है कि 'मोहेवि इमे एवं ' - अर्थात मोहनीयकर्म के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध को भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। यानी पूर्व में जैसे ज्ञानावरण आदि छह कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबंध के सादित्व और अध्रुवत्व का विचार किया है कि जघन्य प्रदेशबंध उत्पत्ति के प्रथम समय में वर्तमान सबसे अल्प वीर्य वाले और सात कर्म के बंधक सूक्ष्म निगोदिया जीव को एक समय मात्र होता है और दूसरे समय उसी को अजघन्य होता है, इत्यादि उसी प्रकार से यहाँ भी समझ लेना चाहिए तथा आयुकर्म के तो जघन्य आदि चारों विकल्प सादि, अध्रुव ही जानना चाहिए। क्यों कि आयु अध्रुवबंधिनी प्रकृति है और अध्रुवबंधिनी प्रकृति सादि, अध्रुव होती है । इसलिए उसके उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों विकल्प सादि और अध्रुव हैं ।
इस प्रकार ग्रन्थलाघव की अपेक्षा प्रसंगोपात्त आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध आदि चारों प्रकारों के सादित्व का विचार करने के बाद
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