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बंधविध-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५
प्रचला का एक हीन स्पर्धक होता है। अर्थात् निद्रा और प्रचला की क्षीणकषायगुणस्थान के चरम समय में स्वरूपसत्ता नहीं होने से उस चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्धकहीन इन दोनों के स्पर्धक होते हैं। यानि ज्ञानावरणपंचक आदि चौदह प्रकृतियों के जितने स्पर्धक कहे हैं, उनसे एक होन निद्राद्विक के स्पर्धक होते हैं।
अब इस संक्षिप्त कथन को सरलता से समझने के लिये विस्तार से स्पष्ट करते हैं
जैसे मोहनीय की सर्वघाति तेरह, नामकर्म की तेरह और स्त्यानद्धित्रिक, कुल मिलाकर इन उनतीस प्रकृतियों के आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं, उसी प्रकार क्षीणमोहगुणस्थान में जिनका क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के क्षीणमोहगुणस्थान का जितना काल है, उससे अधिक संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं और निद्रा तथा प्रचला का एक न्यून स्पर्धक होता है । इसका कारण यह है कि निद्रा, प्रचला अनुदयवती प्रकृति हैं। उदयवती प्रकृतियों को स्वरूपसत्ता से जितनी स्थिति शेष रहे, उसकी अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों की समयन्यून स्थिति शेष रहती है। इसी से उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों का एक स्पर्धक कम होता है। __ अब यह स्पष्ट करते हैं कि क्षोणकषायगुणस्थान में जिनकी सत्ता का नाश होता है, उनके उस गुणस्थान के संख्यातवें भाग के काल प्रमाण स्पर्धक कैसे और किस रीति से होते हैं ?
क्षीणकषायगुणस्थान में वर्तमान कोई क्षपितकर्मांश जीव उस गुणस्थान का जितना काल है, उसका संख्यातवां भाग जाये और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण संख्यातवां एक भाग शेष रहे, तब ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक, इन चौदह प्रकृतियों की उस समय सत्ता में जितनी स्थिति हो, उसे सर्वापवर्तना द्वारा अपवर्तित
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