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पंचसंग्रह : ५
शब्दार्थ - खीण द्वासं खंसं - श्रीणकषाय गुणस्यान के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण, खोणंताणं - क्षीणकषायगुणस्थान में जिनका अन्त - नाश होता है, तु— और, फड्डगुक्कोसं -- स्पर्ध कोत्कर्ष, उदयवईणेगहियं – उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक, निद्दाणं-निद्राओं का, वह स्पर्धक ।
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एगहीणं – एक हीन,
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गाथार्थ - क्षीणकषायगुणस्थान में जिनका अन्त - नाश होता है उन उदयवती प्रकृतियों का एक अधिक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धकोत्कर्ष होता है और निद्राओं ( निद्रा और प्रचला ) का एक हीन स्पर्धक होता है ।
विशेषार्थ - गाथा में बारहवें गुणस्थान की प्रकृतियों के स्पर्धकों का प्रमाण बतलाया है
'खीणंताणं' अर्थात् क्षीणकषायगुणस्थान में जिनकी सत्ता का अन्त - नाश होता है, ऐसी ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतराय पंचक इन चौदह प्रकृतियों का स्पर्धकोत्कर्ष - समस्त स्पर्धकों की संख्या क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण होती है - 'खीणद्धासंखं सं' और इसके साथ यह विशेष जानना चाहिये कि वह संख्या मात्र एक स्पर्धक से अधिक है ।
इन स्पर्धकों के प्रमाण में कौन-सा एक स्पर्धक अधिक होता है ? तो इसका स्पष्टीकरण यह है
चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से लेकर अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त सम्पूर्ण स्थिति का जो पहले एक स्पर्धक बताया हैकहा है उस एक स्पर्धक से अधिक क्षीणकषायगुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं ।
निद्रा और प्रचला इन दोनों निद्राओं का भी बारहवें क्षीणकषायगुणस्थान के उपान्त्य समय में अन्त होता है । अत: इस विशेषता की अपेक्षा उनके स्पर्धक बतलाते हैं कि 'निद्दाणं एगहीणं तं निद्रा और
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