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बंध विधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७५
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'नो आवली गलई' - तब तक उनका समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक प्राप्त होता - 'आवलिमेत्त क्कोसं फड्डग' ।
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उस आवलिका में का एक समय स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रांत हो जाने से दूर हो तब दो समयन्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धक होता है । इस प्रकार जैसे-जैसे समय-समय स्तिबुकसंक्रम द्वारा दूर हो, वैसे-वैसे समयन्यून आवलिका प्रमाण मध्यम स्पर्धक होते हैं । इसी तरह यावत् स्वरूपसत्ता से एक समय स्थिति शेष रहे, वह एक समय प्रमाण जघन्य स्पर्धक होता है ।
इस प्रकार से अनुदयवती उपर्युक्त मिथ्यात्वादि उनतीस प्रकृतियों के चरमावलिका के समयन्यून आवलिका प्रमाण स्पर्धकों और शेष समस्त स्थिति के एक स्पर्धक को मिलाने से समग्ररूपेण आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक होते हैं । 1
अब क्षीणमोहगुणस्थान में जिन प्रकृतियों का क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के स्पर्धक बतलाते हैं
खीणद्धासंखंसं खीणंताणं तु फड्डगुक्कोसं । उदयवईणेगहियं निद्दाणं एगहीणं तं ॥ १७५॥
१ उदयवती प्रकृतियों की क्षय होते-होते जब सत्ता में मात्र एक आवलिका प्रमाण स्थिति रहती है, तब अनुदयवती- प्रदेशोदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता समयन्यून आवलिका शेष रहती है, जिससे उदयवती प्रकृतियों के चरम समय में अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता नहीं होती है । इसी कारण उदयवती प्रकृतियों की उदयावलिका और अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता की अपेक्षा समयन्यून आवलिका शेष रहती है और उनमें का एक भी समय अन्यत्र संक्रम द्वारा क्षय न हो, वहाँ तक समयन्यून आवलिका प्रमाण उत्कृष्ट स्पर्धक पूर्वोक्त प्रकृतियों का होता है और शेष समस्त स्थिति का एक स्पर्धक होता है । इसी कारण उप
होते हैं !
युक्ति प्रकृतियों के कुल मिलाकर आवलिका प्रमाण स्पर्धक
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