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________________ पंचसंग्रह भाग ५ : परिशिष्ट ५ संक्षेप में दिगम्बर साहित्यगत-पल्योपम आदि का वर्णन इस प्रकार है पल्य तीन प्रकार का है - (१) व्यवहार पल्य, (२) उद्धार पल्य और (३) अद्धा पल्य । इनमें से व्यवहार पल्य का केवल इतना ही उपयोग है कि उसके द्वारा उद्धार पल्य और अद्धा पल्य की सृष्टि होती है परन्तु मापा कुछ नहीं जाता है । उद्धार पल्य से उद्धृत रोमों के द्वारा द्वीप और समुद्रों की संख्या और अद्धा पल्य के द्वारा जीवों की आयु आदि जानी जाती है । इनकी निष्पत्ति का मूल कारण व्यवहार पल्य है, इसी कारण वह व्यवहार पल्य कहलाता है । विशेषता के साथ उक्त संक्षिप्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है प्रमाणांगुल से निष्पन्न एक योजन लम्बे. एक योजन चौड़े और एक योजन गहरे तीन पल्य (गड्ढे) बनाओ। उसमें से पहले पल्य को एक दिन से लेकर सात दिन तक के मेष के रोमों के अग्रभागों को कैंची से काट-काट कर इतने छोटे-छोटे ऐसे खंड करो कि जो पुनः काटे न जा सकें, फिर उन खंडों से उस पल्य को खूब ठसाठस भर दो । उस पल्य को व्यवहार पल्य कहते हैं । उस व्यवहार पल्य से सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक रोम खंड निकालतेनिकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो उसे व्यवहार पल्योपम काल कहते हैं । __ व्यवहार पल्य के एक एक रोम खंड के कल्पना से उतने खंड करो, जितने असंख्यात कोटि वर्ष के समय होते हैं और वे सब रोमखंड दूसरे पल्य में भर दो, उसे उद्धार पल्य कहते हैं । फिर उस पल्य में से प्रतिसमय एक-एक खंड निकालते-निकालते जितने समय में वह पल्य खाली हो, उसे उद्धार पल्योपम काल कहते हैं। दस कोटाकोटि उद्धार पल्योपम का एक उद्धार सागरोपम होता है और अढाई उद्धार सागर में जितने रोम खंड होते हैं, उतनी ही द्वीप और समुद्रों की संख्या जानना चाहिए । उद्धार पल्य के रोम खंडों में से प्रत्येक रोम खंड के पुनः कल्पना के द्वारा उतने खंड करो कि जितने सौ वर्ष के समय होते हैं और उन खंडों को तीसरे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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