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________________ वंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ ३०३ बंधता हुआ अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव तीर्थंकरनामकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है तथा उत्कृष्ट योग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत तथा अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक सहित देवगति योग्य तीस प्रकृतियों का बंधक आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी है। हास्य, रति, अरति और शोक इन मोहनीय कर्म की चार प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी उत्कृष्ट योग में वर्तमान अविरत १. देवगतिप्रायोग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक बंधस्थान में समाविष्ट प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, तेजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, त्रस चतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, यश कीर्ति, आदेय, निर्माण और तीर्थकर=२६ । उक्त उनतीस प्रकृतिक स्थान में तीर्थंकरनाम को कम करके आहारकद्विक --आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग को मिलाने पर तीस प्रकृतिक स्थान होता है। २. 'आहारमप्पमत्तोति । आहारगस्स अप्पमत्तोत्ति, अप्पमत्ता अपुवकरणा य दोवि गहिया, तेसिं उबक सजोगीणं देव गइपाउग्गं आहारगदुगसहियं तीसं बंधमाणाणं उक्कोसपएसबंधी हवा, एक्कतीसे न लब्भइ, बहुगा भागा भवन्ति त्ति काऊं। -शतकचूणि लेकिन दिगम्बर कर्मसाहित्य में आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी अप्रमतयत को बतलाया हैआहारमप्पमत्तो आहारकद्वय स्याप्रमत्तोमुनिरुत्कृष्ट प्रदेशबंधं करोति । -दि. पं. सं. शतक अधिकार, गाथा ५०८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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