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पंचसंग्रह : ५ सम्यग्दृष्टिगुणस्थानवी जीव है। तथा तिर्यचद्विक, असातावेदनीय, नीचगोत्र, स्त्रीवेद और नपुसकवेद का सात कर्म का बंधक मिथ्यादृष्टि उ र प्रदेशबंध का स्वामी है।
हुंडकसंस्थान, स्थावर, अयशःकीति, औदारिकशरीर, प्रत्येक, साधारण, सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रियजाति और अपर्याप्त नामकर्म इन सभी प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी एकेन्द्रियप्रायोग्य तेईस प्रकृतियों का बंधक, उत्कृष्ट योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि जीव है तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति, सेवार्तसंहनन
१ यद्यपि यहाँ अविरतसम्यग्दृष्टि को उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी बताया है।
जो विचारणीय है। क्योंकि कर्मग्रन्थ की टीका में अविरतसम्यग्दृष्टि से अपूर्वकरण गुणस्थान तक के उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीवों को बताया है। दूसरा कारण यह है कि मोहनीय की सत्रह और तेरह प्रकृतियों के बंधक चौथे, पांचवें गुणस्थान वाले और नौ प्रकृतियों के बंधक छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान वाले हैं । जिससे यथाक्रम से उनको अल्प-अल्प प्रकृतियों का बंध है और अबध्यमान मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों का भाग भी प्राप्त होता है, जिससे उत्कृष्ट प्रदेशबंधकों मे उनको ग्रहण किया जा सकता है ।
दिगम्बर कर्मसाहित्य में इन हास्यादि नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशबंधकों में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त जिनजिन गुणस्थानों में बंध होता है, उन गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट योगी को बतालाया है। यद्यपि यहाँ असातावेदनीय का उत्कृष्ट प्रदेशबंधक मिथ्यादृष्टि जीव बतलाया है। परन्तु सम्यक्त्वी जीव भी असातावेदनीय को बांधता है। अतएव उसे भी उसके उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी होना चाहिए। पंचम कर्मग्रन्थ में इसी प्रकार बताया है ।
दि. पंचसंग्रह शतक अधिकार गाथा ५०८ में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को आसातावेदनीय के उत्कृष्ट प्रदेशबंध का स्वामी
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