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बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३७
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'एवइया बाहवाससया' अर्थात् जिस कर्म प्रकृति की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति हो, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष • अबाधाकाल समझना चाहिए। जैसेकि मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम है तो उसका सत्तर सौ वर्ष यानी सात हजार वर्ष प्रमाण अबाधाकाल है । इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए ।
अब पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों में से पहले आयुचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं
सुरनारयाउयाणं अयरा तेत्तीस तिन्नि पलियाई । इयराणं चउसु वि पुव्वकोडितसो अबाहाओ ||३७|| शब्दार्थ - सुरनारयाज्याणं - देव और नरक आयु की, अयरा - सागरोपम, तेत्तीस --- तेतीस तिन्नि-तीन, पलियाई - पल्योपम, इयराणं - इतर दो आयु की, चउसु — चारों आयु में, बि- हो, पुष्वकोडितसो - पूर्व कोटि का तीसरा भाग, अबाहाओ - अबाधाकाल |
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गाथार्थ - देव और नरक आयु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है और उनसे इतर दो आयु मनुष्य एवं तिर्यंच आयु की तीन पल्य है । चारों ही आयु का पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधाकाल है |
विशेषार्थ - गाथा में आयुकर्म के चारों भेदों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है
देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम तथा इतर -- तिर्यंच और मनुष्य आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है । इन चारों स्थितियों में पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक मिला लेना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देव और नरक आयु की जो उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम और तिर्यंच, मनुष्य आयु की तीन पल्योपम बतलाई है, वह अनुभवयोग्या उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें
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