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________________ बंधविधि - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३७ १६१ 'एवइया बाहवाससया' अर्थात् जिस कर्म प्रकृति की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति हो, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष • अबाधाकाल समझना चाहिए। जैसेकि मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम है तो उसका सत्तर सौ वर्ष यानी सात हजार वर्ष प्रमाण अबाधाकाल है । इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए । अब पूर्वोक्त से शेष रही प्रकृतियों में से पहले आयुचतुष्क की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं सुरनारयाउयाणं अयरा तेत्तीस तिन्नि पलियाई । इयराणं चउसु वि पुव्वकोडितसो अबाहाओ ||३७|| शब्दार्थ - सुरनारयाज्याणं - देव और नरक आयु की, अयरा - सागरोपम, तेत्तीस --- तेतीस तिन्नि-तीन, पलियाई - पल्योपम, इयराणं - इतर दो आयु की, चउसु — चारों आयु में, बि- हो, पुष्वकोडितसो - पूर्व कोटि का तीसरा भाग, अबाहाओ - अबाधाकाल | 1 गाथार्थ - देव और नरक आयु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है और उनसे इतर दो आयु मनुष्य एवं तिर्यंच आयु की तीन पल्य है । चारों ही आयु का पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधाकाल है | विशेषार्थ - गाथा में आयुकर्म के चारों भेदों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम तथा इतर -- तिर्यंच और मनुष्य आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है । इन चारों स्थितियों में पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक मिला लेना चाहिये । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देव और नरक आयु की जो उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम और तिर्यंच, मनुष्य आयु की तीन पल्योपम बतलाई है, वह अनुभवयोग्या उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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