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पंचसंग्रह : ५
विशेषार्थ - गाथा में आयु और नामकर्म की सम्यक्त्वसाक्षेप आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम इन तीन प्रकृतियों के अतिरिक्त पूर्वोक्त से शेष रही कतिपय शुभ प्रकृतियों एवं मोहनीय, गोत्र कर्म की प्रकृतियों की नामोल्लेख पूर्वक उत्कृष्ट स्थिति तथा उत्कृष्ट स्थिति का अबाधाकाल जानने की विधि बतलाई है ।
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नामोल्लेख पूर्वक जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, वे इस प्रकार हैं
पुरुषवेद, हास्य, रति, उच्चगोत्र, शुभविहायोगति, स्थिरषट्कस्थिर, शुभ, सौभाग्य, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और देवद्विक-देवगति और देवानुपूर्वी इन तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है । एक हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन शेष निषेकरचनाकाल है तथा नामोल्लेख पूर्वक जितनी प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति अभी तक कही जा चुकी है, उनसे शेष रही प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है- 'सेसाणं वीसा ।' वे शेष प्रकृतियां सैंतीस हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं
भय, जुगुप्सा, शोक, अरति, नपुंसकवेद, नीचगोत्र, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकोति, स्थावर, आतप उद्योत, अशुभविहायोगति, निर्माण, एकन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, तेजस और कार्मण । इनकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम है, दो हजार वर्ष का अबाधाकाल और अबाधाकाल से हीन निषेकरचनाकाल है ।
यद्यपि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाने के साथ उन-उनके अबाधाकाल का भी निर्देश करते आ रहे हैं । लेकिन अभी तक उतना - उतना अबाधाकाल मानने का नियम नहीं बतलाया है । अतः अब उसे बताते हैं
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