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पंचसंग्रह : ५ अबाधाकाल गभित नहीं है तथा पूर्वकोटि का तीसरा भाग जो अधिक लिया गया है, वह उनका अबाधाकाल है। इतने काल में बध्यमान आयु के दलिकों की रचना नहीं होती है। अज्यमान आयु के दो भाग बीतने पर तीसरा भाग शेष रहे तब परभव की आयु का बंध होता है, तभी पूर्वकोटि का तीसरा भाग अबाधा घटित होता है। पूर्वकोटि वर्ष की आयु वाला तीसरे भाग की शुरुआत में यदि परभव की आयु बंध करे, उसे ही उतना उत्कृष्ट अबाधाकाल होता है। पूर्वकोटि का तीसरा भाग ये उत्कृष्ट अबाधा है। क्योंकि पूर्वकोटि से अधिक आयु वाला अपनी आयु के छह मास रहने पर परभव की आयु का बंध करता है। ___आयुकर्म के अबाधाकाल के सम्बन्ध में एक बात ध्यान रखने योग्य है कि अबाधाकाल के लिए पहले जो नियम बतला आये हैं कि एक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष अबाधाकाल होता है, वह नियम आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों की अबाधा निकालने के लिए है । आयुकर्म को अबाधा स्थिति के अनुपात पर अवलम्बित नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्य सातों कर्मों का बंध तो सर्वदा होता रहता है, किन्तु आयुकर्म का बंध अमुक-अमुक काल में ही होता है । गति के अनुसार अमुक-अमुक काल निम्न प्रकार हैं-कर्मभूमिज मनुष्यगति और तिर्यंचगति में जब भुज्यमान आयु के दो भाग बीत जाते हैं तब परभव की आयु के बंध का काल उपस्थित होता है । जैसे कि यदि किसी मनुष्य को आयु निन्यानवै वर्ष की है तो उसमें छियासठ वर्ष बीतने पर वह मनुष्य परभव की आयु बांधेगा, उससे पहले उसके आयुकर्म का बंध नहीं हो सकता है। यह तो हुई कर्मभूमिज मनुष्यतिर्यचों की अपेक्षा से आयुकर्म को अबाधा की व्यवस्था किन्तु भोगभूभिज मनुष्य और तिथंच तथा देव और नारक अपनी-अपनी आयु के छह माह शेष रह जाने पर आगामी भव की आयु बांधते हैं। ___ आयुकर्म की अबाधा के सम्बन्ध में दूसरी ध्यान में रखने योग्य
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