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पंचसंग्रह : ५
कीर्ति के सिवाय त्रसादिनवक, इस प्रकार कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध मोहनीयकर्म को सर्वथा क्षय करने की योग्यता वाला अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती जीव जहाँ उनका बंधविच्छेद होता है, वहाँ करता है ।
मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और प्रथम संहनन इन पांच प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध को अविरतसम्यग्दृष्टि देव करते हैं तथा प्रमत्तगुणस्थान में देवायु के बंध को प्रारम्भ करके अप्रमत्तगुणस्थान में गया हुआ जीव तीव्र विशुद्धि के योग में उसका उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है और सातावेदनीय, उच्चगोत्र तथा यशः कीर्ति इन तीन प्रकृतियों का क्षपक सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती जीव अत्यन्त तीव्र विशुद्धि के योग में उत्कृष्ट अनुभागबंध करता है ।
१ तीर्थकर आदि प्रकृतियों का आठवें और यशःकीर्ति आदि का दसवें गुणस्थान में उत्कृष्ट रसबंध होने से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आठवें से नौवें एवं दसवें से ग्यारहवें गुणस्थान में अत्यन्त विशुद्ध परिणामों के होने पर भी वहाँ इन प्रकृतियों का उत्कृष्ट रसबंध क्यों नहीं होता है ?
इसका उत्तर यह है कि अल्पातिअल्प सीमा से लेकर अधिक-सेअधिक अमुक सीमा तक के विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणामों से अमुक पुण्य एवं अमुक पाप प्रकृति बंधती हैं । इस प्रकार बंध में अपनी-अपनी कम-से-कम और अधिक-से-अधिक विशुद्धि या संक्लेश की मर्यादा है । उसकी अपेक्षा वह घट या बढ़ जाये तो उस प्रकृति का बंध नहीं होता है । इसी कारण यह कहा गया है कि अमुक प्रकृति अमुक गुणस्थान तक बंधती है । यदि इस प्रकार की मर्यादा न हो और उत्तरवर्ती गुणस्थानों में भी बंध होता रहे तो फिर बंध का अंत नहीं आयेगा, जिस से कोई जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसी कारण तीर्थकर आदि प्रकृतियों का
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