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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७० इस प्रकार से विशेष रूप सें शुभ और अशुभ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामित्व को जानना चाहिये । अब शुभ अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों का कथन करते हैं । जघन्य अनुभागबंध स्वामित्व आहार अप्पमत्तो कुणइ जहन्नं पमत्तयाभिमुहो । नरतिरिय चोद्दसहं देवाजोगाण साऊण ॥ ७० ॥ शब्दार्थ - आहार - आहारकद्विक, अप्पमत्तो - अप्रमत्त, कुणइ — करता है, जहन्नं— जघन्य, पमत्तयाभिमु हो - प्रमत्तपने के अभिमुख, नरतिरिय - मनुष्य और तिर्यंच, चोहसण्हं - चौदह प्रकृतियों का, देवाजोगाण— देवों के अयोग्य, साऊण - अपनी आयु का । -- २४७ गाथार्थ - आहारकद्विक का जघन्य अनुभागबंध प्रमत्तपने के अभिमुख हुआ अप्रमत्त करता है और देवों के अयोग्य चौदह प्रकृतियों तथा अपनी आयु का मनुष्य और तिर्यंच जघन्य अनुभागबंध करते है । विशेषार्थ - इस गाथा से जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार प्रारम्भ किया है ------ गुणस्थान में उत्कृष्ट रसंबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणाम वहीं हैं, आठवें और यशःकीर्ति आदि का दसवें बताया है । क्योंकि उनके बंधयोग्य आगे के गुणस्थानों में उनकी बंधयोग्य सीमा से अधिक निर्मल परिणाम हैं । जिससे वहाँ उनका बंध नहीं होता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रकृति के लिये समझना चाहिए । १ दिगम्बर पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४५१ से ४६६ तक उत्कृष्ट अनुभागबंध के स्वामियों का वर्णन किया है। जो यहाँ से प्रायः मिलता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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