________________
२४८
पंचसंग्रह : ५ 'आहार अप्पमत्तो कुणइ' अर्थात् आहारकद्विक-आहारकशरीर, आहारक-अंगोपांग का प्रमत्तसंयतगुणस्थान के अभिमुख हुआ अर्थात् अनन्तर समय में प्रमत्तभाव को प्राप्त होने के अभिमुख जघन्य अनुभागबंध करता है। इसका कारण यह है कि इनके बांधने वालों में वही संक्लिष्ट परिणामी है और पतनोन्मुखी जीव के क्लिष्ट परिणाम होते हैं तथा क्लिष्ट परिणाम होने पर ही पुण्य-शुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग का बंध होता है । तथा ___ 'देवाजोगाण' अर्थात् देवों के बंध के अयोग्य ऐसी नरकत्रिक, देवत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपयप्ति, साधारण और वक्रियद्विक रूप चौदह प्रकृतियों के तथा तिर्यंचायु और मनुष्यायु के जघन्य अनुभागबंध के स्वामी तत्प्रायोग्य विशुद्ध और संक्लिष्ट परिणाम वाले मनुष्य और तिर्यंच हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
नरकत्रिक का दस हजार वर्ष प्रमाण नरकाय को बांधते समय तत्प्रायोग्य विशुद्ध मनुष्य और तिर्यंच जघन्य अनुभागबंध करते हैं । क्योंकि अतिविशुद्ध परिणाम वाले के नरकप्रायोग्य बंध संभव ही नहीं है तथा तीन आयु की अपनी-अपनी जघन्य स्थिति को बांधते हुए तत्प्रोयोग्य संक्लिष्ट परिणामी जघन्य अनुभाग का बंध करता है। अतिसंक्लिष्ट परिणाम होने पर उसका बंध असम्भव है।
वैक्रियद्विक का नरकगति योग्य बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हुए अति संक्लिष्ट परिणाम के योग में तथा
१ यद्यपि नरकप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर क्लिष्ट परिणाम होते
हैं । परन्तु दस हजार वर्ष से अधिक आयुवंधक की अपेक्षा दस हजार वर्ष प्रमाण आयु बांधने वाला शुद्ध है। उससे अधिक शुद्ध परिणाम होने पर नरकप्रायोग्य बंध ही नहीं होता है, इसलिये यहाँ 'तत्प्रायोग्य विशुद्ध' यह कहा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org