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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७१
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देवद्विक का दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधते समय तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणाम होने पर जघन्य अनुभागबंध होता है । उनके बंधकों में ऐसे जीव ही अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले हैं तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन छह प्रकृतियों का तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामी जीव अनुभागबंध करता है। क्योंकि अधिक विशुद्धि वाले के तो इन प्रकृतियों का बंध ही असम्भव है ।
इन सोलह प्रकृतियों को देव और नारक भवस्वभाव से ही नहीं बांधते हैं, इसीलिये मनुष्य और तिर्यंच का ग्रहण किया है। यद्यपि मनुष्य और तिर्यंच आयु को देव और नारक बांधते है, परन्तु उनकी मध्यम आयु को बांधते हैं। जघन्य आयु को नहीं बांधते हैं। तथा
ओरालियतिरियदुगे नीउज्जोयाण तमतमा छण्हं । मिच्छ नरवाणभिमुहो सम्मठ्ठिी उ तित्थस्स ॥७१॥
शब्दार्थ-ओरालियतिरियदुर्ग-औदारिकद्विक, तिर्यचद्विक, नीउज्जोयाण -नीचगोत्र, उद्योत का, तमतमा-तमस्तमा नामक सप्तम नरक का नारक, छह-छह का, मिच्छनरयाणभिमुहो- मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख, सम्मट्ठिी -सम्यग्दृष्टि, उ-और, तित्थस्स-तीर्थंकरनामकर्म का।
गाथार्थ-औदारिकद्विक, तिर्यचद्विक, नीचगोत्र और उद्योतनाम इन छह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध तमस्तमा नामक सातवीं पृथ्वी के नारक करते हैं तथा मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख हुआ सम्यग्दृष्टि तीर्थकरनाम का जघन्य अनुभागबंध करता है। विशेषार्थ-गाथा में कुछ शुभ और कुछ अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामियों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
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