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________________ पंचसंग्रह : ५ शुभ की सहचारी शुभ प्रकृतियां और अशुभ की सहचारी अशुभ प्रकृतियां होती हैं । इसलिये शुभ के साथ शुभ प्रकृतियों का और अशुभ के साथ अशुभ प्रकृतियों का योग करके औदारिकद्विक के साथ उद्योत का और तिर्यंचद्विक के साथ नीचगोत्र का संयोग करना चाहिये । २५० तात्पर्य यह है कि 'व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिः व्याख्यान - विस्तृत टीका द्वारा विशेष अर्थ का ज्ञान होता है' इस न्यायवचन के अनुसार औदारिकद्विक और उद्योतनाम इन तीन प्रकृतियों के जघन्य अनुभागबंध के स्वामित्व का विचार करने के संदर्भ में यद्यपि 'तमतमा' पद द्वारा सप्तम पृथ्वी का नारक जीव ही लिया है, लेकिन यहाँ यह अर्थ भी ग्रहण करना चाहिये कि देव अथवा नारक तिर्यंचगति की उत्कृष्ट संक्लेश से बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति बांधते हुए जघन्य अनुभागबंध करते हैं। क्योंकि उन प्रकृतियों के बंधकों में वे ही सर्व संक्लिष्ट अध्यवसाय वाले हैं । किन्तु इस प्रकार के अतिसंक्लिष्ट परिणामी तिर्यंच, मनुष्य को नरकगतियोग्य प्रकृतियों का बंध सम्भव होने से उनको उपर्युक्त प्रकृतियों का गंध होना असम्भव है । इसमें भी औदारिक अंगोपांण के बंधक ईशानस्वर्ग से आगे के देव होते हैं । इसका कारण यह है कि अतिसंक्लिष्ट परिणामों में ईशान स्वर्ग तक के देवों के तो एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का बंध सम्भव होने से उस समय उनको औदारिक अंगोपांगनामकर्म का बंध नहीं होता है । तथा तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी और नीचगोत्र का सप्तम नरक पृथ्वी में वर्तमान औपशमिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ नारक यथाप्रवृत्तादि तीन करण करने पूर्वक अन्तरकरण करके प्रथमस्थिति को विपाकोदय द्वारा अनुभव करते हुए प्रथम स्थिति के चरम समय में मिथ्यादृष्टि होता हुआ जघन्य अनुभागबंध करता है । इन प्रकृतियों For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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