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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७२
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के बंधकों में उसी के उत्कृष्ट विशुद्धि है ।1 इस प्रकार इन छह प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभागबंध का स्वामी है । तथा__ 'मिच्छनरयाणभिमुहो' इत्यादि अर्थात् मिथ्यात्व और नरक के अभिमुख अविरत, वेदक सम्यग्दृष्टि जीव तीर्थंकरनाम के जघन्य अनुभागबंध का स्वामी है। चौथे गुणस्थान से पहले गुणस्थान में जाते हुए चौथे गुणस्थान के चरम समय में तीर्थंकरनाम का उत्कृष्ट स्थितिबंध और जघन्य अनुभागबंध करता है। क्योंकि इसके जघन्य अनुभागबंध के योग्य वही सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाला है । तथा
सुभधुवतसाइचतुरो परघाय पणिदिसासचउगइया । उक्कडमिच्छा ते च्चिय थीअपुमाणं विसुझंता ॥७२॥ शब्दार्थ-सुमधुव-शुभ ध्र वबंधिनी, तसाइचतुरो-त्रसादि चार, परघाय-पराघात, पणिदि-पंचेन्द्रिय जाति, सास-उच्छ्वासनाम, चउमइया-चारों गति के जीव, उक्कडमिच्छा-उत्कृष्ट मिथ्यादृष्टि, ते-वे, च्चिय-ही, थीअपुमाणं-स्त्रीवेद और नपुसकवेद का, विसुझंता-विशुद्ध परिणाम वाले।
गाथार्थ--शुभ ध्र वबंधिनी आठ, त्रसादि चार, उपघात, पंचेन्द्रियजाति, उच्छ वास इन पन्द्रह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध चारों गति के संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव तथा
१ (क) तिरियगति तिरियाणपुव्वि नियागोयाणं अहेसत्तमपुढविनेरइओ
सम्मत्ताभि मुहो करणाई करेत्तु चरमसमयमिच्छदिट्ठीभवपच्चएण ताओ तिन्नि बंधइ, जाव मिच्छत्तभावो ताव तस्स सव्वजहन्नोणुभागो हवइ, तब्बंधगेसु अच्चन्तविसुद्धोत्ति काउं ।
-शतकचूणि (ख) तिरियदुयं णिच्चं पि य तमतमा जाण तिण्णेदे ।
-दि. पंचसंग्रह, शतक अधि. ४७५ For Private & Personal Use Only
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