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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५
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__ अनुभागबंध अब रसबंध (अनुभागबंध) का प्रतिपादन प्रारम्भ करते हैं। इसके तीन अनुयोगद्वार है-१ सादि-अनादि प्ररूपणा, २ स्वामित्व प्ररूपणा और, ३ अल्पबहुत्व प्ररूपणा । सादि-अनादि प्ररूपणा भी दो प्रकार की है--मूल प्रकृति-सम्बन्धी और उत्तर प्रकृति-सम्बन्धी । इनमें से पहले मूल प्रकृति-सम्बन्धी सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं।' मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा
अणुभागोणुक्कोसो नामतइज्जाण घाइ अजहन्नो। गोयस्स दोवि एए चउविवहा सेसया दुविहा ॥६५॥ शब्दार्थ-अणुभागोणुक्कोसो-अनुत्कृष्ट अनुभाग, नामतइज्जाण-नाम और तृतीय वेदनीय कर्म का, घाई -- घातिकर्मों का, अजहन्नो- अजघन्य, गोयस्स-गोत्र के, दोवि—दोनों, एए-ये, चउविवहा-चार प्रकार के, सेसया--- शेष, दुव्हिा -दो प्रकार के ।
गाथार्थ-नाम और तीसरे वेदनीय कर्म का अनुत्कृष्ट अनुभागबंध, घातिकर्मों का अजघन्य अनुभागबंध और गोत्रकर्म के ये दोनों बंध चार प्रकार के हैं और शेष बंध दो प्रकार के हैं।
विशेषार्थ- गाथा में ज्ञानावरण आदि मूलकर्मों के अनुभागबंध की सादि-अनादि प्ररूपणा का निरूपण किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
'नामतइज्जाण' अर्थात् नामकर्म और वेदनीयकर्म का 'अणुभागोणुक्कोसो' अनुत्कृष्ट अनुभागबंध 'चउव्विहा'- चार प्रकार का है । जो इस प्रकार जानना चाहिए
नाम और वेदनीय कर्म का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में होता है और उसके बाद दूसरे समय में विच्छिन्न हो जाता है । यह उत्कृष्ट बंध एक समय मात्र का होने से सादि, सान्त है। इसके सिवाय शेष अनुभागबंध अनुत्कृष्ट है । वह उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है। वहाँ से गिरने पर
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