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पंचसंग्रह : ५ प्रशस्त कर्मप्रकृतियों में जैसे-जैसे संक्लेश बढ़ता है वैसे-वैसे उनकी स्थिति की वृद्धि और रस-हानि होती जाती है। स्वयोग्य उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तब उनकी भी उत्कृष्ट स्थिति बंधती है, उस-उस समय रस का अत्यन्त अल्प बंध होता है, इसलिए उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी जिसके अन्दर से रस निकाल लिया है, ऐसे नीरस ईख के समान होने से अप्रशस्त है।
अब जिसके द्वारा उत्कृष्ट स्थिति और जघन्य स्थिति बंधती है उस हेतु का निरूपण करते हैं
समस्त कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा बंधती है, इसलिये जो-जो संक्लेश जिस-जिस प्रकृति के बंध में हेतु है, उसमें जो उत्कृष्ट संक्लेश है, वह संक्लेश उस-उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति में हेतु है तथा समस्त प्रकृतियों को जघन्य स्थिति विशुद्ध अध्यवसायों द्वारा बंधती है, यानि जो विशुद्ध परिणाम जिस प्रकृति के बंध में हेतु हैं, उनमें जो सर्व विशुद्ध परिणाम हैं, वे उस प्रकृति की जघन्य स्थिति उत्पन्न करते हैं । लेकिन एतद् विषयक अपवाद भी हैं___'सुरनरतिरिआउए मोत्त' अर्थात् देव, मनुष्य और तिर्यंच आयु को छोड़ देना चाहिए । इन तीन आयु के बंधक जीवों में जो सर्वसंक्लिष्ट परिणाम वाले हैं वे इन तीन आयु की जघन्य स्थिति बांधते हैं और सर्वविशुद्ध परिणाम वाले उत्कृष्ट स्थिति बांधते हैं तथा जैसेजैसे उनकी स्थिति की वृद्धि होती है, वैसे वैसे रस की भी वृद्धि होती है और जैसे-जैसे अल्पस्थिति का बंध होता है, वैसे-वैसे रस भी हीन बंधता है। इस प्रकार इन तीन आयु का शेष प्रकृतियों से विपरीत क्रम है। ____ आयु के स्थितिबंध के सन्दर्भ में इतना विशेष है कि घोलमान परिणामों में आयु का बंध होता है । अतः आयुबंध हो सके, तत्प्रमाण सर्वसंक्लिष्ट और सर्वविशुद्ध परिणाम ग्रहण करना चाहिये। किन्तु अत्यन्त संक्लिष्ट या विशुद्ध परिणाम नहीं जानना चाहिए।
इस प्रकार से स्थितिबंध के स्वरूप का विवेचन समाप्त हुआ ।
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