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________________ ३- योगोपयोगमार्गणा अधिकार की गाथा ११ में बताया है कि विभंगज्ञान में औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है, जबकि गाथा १२ में कहा है कि विभंगज्ञान में औदारिकमिश्र काययोग होता है। ४-आचार्य मलयगिरि सूरि ने अपनी व्याख्या में चक्षुदर्शन मार्गणा में वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र का निषेध किया है लेकिन चतुर्थ कर्मग्रन्थ में उसका निषेध नहीं किया है। ५-जीवस्थानों में योग निरूपण के प्रसंग में तो मनोयोग संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त को और वचनयोग पर्याप्त द्वीन्द्रिय आदि पाँच जीवस्थानों में तथा काययोग सर्व जीवस्थानों में बतलाया है। जबकि मार्गणास्थानों में जीवस्थानों को बतलाने के प्रसंग में मनोयोग में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त यह दो, वचनयोग में पर्याप्त-अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय यह आठ एवं काययोग में एकेन्द्रिय के मात्र चार जीवस्थान बताये हैं। जबकि चतुर्थ कर्मग्रन्थ में वचनयोग में पर्याप्त द्वीन्द्रियादि मात्र पाँच जीवस्थान बताये हैं। ६-योगोपयोगमार्गणा अधिकार गाथा ६ में जीवस्थानों में योगों का निर्देश करने के प्रसंग में पर्याप्त विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में काययोग और वचनयोग, संज्ञी पर्याप्त में सभी योग और शेष जीवों में काययोग बताया है। लेकिन योगमार्गणा में जीवभेदों को बताने के प्रसंग में काययोग में चार, वचनयोग में आठ और मनोयोग में दो जीवस्थान बतलाते हैं। जबकि जीवस्थानों में योगों को अथवा योगों में जीवस्थानों को बतलाना एक जैसा है। ७- भगवती आदि आगमों में अवधिदर्शन में एक से बारह, कर्म. ग्रन्थादि में चार से बारह और यहाँ (योगोपयोगमार्गणा अधिकार में) गाथा २० में तीन से बारह तथा गाथा ३० की टोका में एक से बारह गुणस्थान बताये हैं। ८-विभंगज्ञान में संज्ञी-पर्याप्त एक और चतुर्थ कर्मग्रन्थ में संज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त इस प्रकार दो जीवभेद बताये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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