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( २० ) का उल्लेख किया जाना प्रासंगिक भी नहीं होगा। अतएव प्राक्कथन में कर्म सिद्धान्त कतिपय विचारणीय विन्दुओं का विवरण प्रस्तुत करते हैं । यद्यपि इन बिन्दुओं में से कितनेक का यथाप्रसंग उल्लेख भी है, लेकिन वर्तमान में वृहत् परिमाण में कर्म साहित्य उपलब्ध हो गया है और उसके अभ्यासियों की बहुलता हो गई है । साथ-साथ साहित्यिक अनुसन्धान का क्षेत्र भी विस्तृत हुआ है, अतः उसके होते हुए भी यदि विचारणीय बिन्दु, मात्र विचारणीय ही बने रहे और निर्णय नहीं हुआ तो क्या लाभ है ? इसलिए इनके लिये ऊहापोह होकर एक निर्णय पर पहुंचना अपेक्षित है। मान्यता-भेद, परम्परा-भेद आदि कह सर्वसम्मत निर्णय न कर अनिर्णीत रहने दिया तो उपेक्षणीय वृत्ति मानी जायेगी। ___ इन विचारणीय बिन्दुओं को सैद्धान्तिक, कार्मग्रन्थिक और ग्रन्थकर्ताओं के अपने-अपने अभिमत इन तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है । इसी क्रम से उन्हें यहाँ उपस्थित करने का प्रयत्न करते हैं । साथ ही यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि जो कुछ भी उप. स्थित करेंगे, उसके मूल में जिज्ञास वृत्ति है, न तो किसी के प्रति आकर्षण विकर्षण भाव है और न किसी को श्रेष्ठ-कनिष्ठ मानने की वृत्ति है।
मत-भिन्नता आदि के रूप में माने गये विचारणीय बिन्दुओं में से कुछ एक का उल्लेख करते हैं । जिनको मुख्य रूप से पंचसंग्रह से संकलित किया गया है--
१- ग्रन्थकार उत्पत्ति के दूसरे समय से स्वयोग्य सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण न हों, तब तक मिश्रकाययोग मानते हैं। लेकिन अन्य आचार्य शरीरपर्याप्ति पूर्ण हो तब तक मिश्र और तदनन्तर शुद्ध काययोग मानते हैं।
२-ग्रन्यकार चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त आदि तीन जीवस्थानों में चक्षदर्शन नहीं मानते हैं, जब कितने ही आचार्य इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद चक्षुदर्शन मानते हैं ।
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