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आवपस्थन
यह बंधविधि प्ररूपणा नामक पाँचवाँ अधिकार है । यहाँ तक ग्रन्थ के प्रतिपाद्य में से अर्ध अंश का विवेचन पूर्ण होता है। जिससे यहाँ तक के भाग को पंचसंग्रह का पूर्वार्ध कह सकते हैं । इसका पूर्व अधिकारों के साथ यह सम्बन्ध है कि जो जीव कर्म के बन्धक हैं, वे जिन हेतुओं से अपने योग्य कर्मों का बंध करते हैं, उसकी विधि क्या है ? वे बंधहेतुओं की अल्पाधिकता के द्वारा किस रूप में बंध करते हैं ? इसका उत्तर प्रस्तुत अधिकार में दिया है ।
यद्यपि अधिकार के नाम से तो ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ मात्र बंध की विधि का, बंध के स्वरूप का वर्णन किया गया होगा और ऐसी धारणा बनना स्वाभाविक भी है। 'बंधविधि' की शाब्दिक व्युत्पत्ति से यही अर्थ निकलता है । लेकिन ग्रन्थकार आचार्य ने व्यापक दृष्टिकोण का आधार लेकर बंध के साथ-साथ उदय, उदीरणा और सत्ता विधि का भी विवेचन किया है । इनका भी विवेचन क्यों किया है ? इसके कारण को ग्रन्थकार आचार्य ने निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है
बंधस्सुदओ उदए उधोरणा तदवसेसयं संतं । तम्हा बंधविहाणे मन्तंते इइ भणितव्वं ॥
अर्थात् बद्ध कर्म का उदय होता है । उदय होने पर उदीरणा होती है और शेष की सत्ता होती है । इस प्रकार परस्पर सम्बन्ध होने से बंधविधि के साथ उदयादिक के स्वरूप का भी वर्णन किया गया है ।
विषय प्रवेश के सन्दर्भ में तो अधिकार के प्रतिपाद्य की संक्षेप में रूपरेखा दी जायगी । जिसका क्षेत्र सीमित है । उसमें अन्य सम्बन्धित
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