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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६१, १६२
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अद्धाजोगुक्कोसेहिं देवनिरयाउगाण परमाए। परमं पएससंतं जा पढमो उदयसमओ सो ॥१६॥ सेसाउगाणि नियगेसु चेव आगंतु पुव्वकोडीए । सायबहुलस्स अचिरा बंधते जाव नो वट्ट ॥१६२॥
शब्दार्थ-अखाजोगुक्कोसेहि-उत्कृष्ट काल और योग द्वारा, देव निरयाउगाण-देवायु और नरकायु की, परमाए-उत्कृष्ट स्थितिबंध होने पर, परमं-उत्कृष्ट, पएससंतं-प्रदेशसत्ता, ज-यावत्, पढमो-प्रथम, उदयसमओ-उदय के समय, सो-उनकी ।
सेसाउगाणि-शेष आयुद्विक की, नियगेसु-अपने अपने भव में, चेवही, आगंतु-आकर, पुवकोडीए-पूर्वकोटि प्रमाण, सायबहुलस्स-साताबहुल के, अचिरा-शीघ्र ही, बंधते-बंध के अन्त में, जाव-यावत्, तक, नोनहीं, पट्ट-अपवर्तना।
गाथार्थ उत्कृष्ट काल और योग द्वारा देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति का बंध होने पर उदय के प्रथम समय तक इन दोनों आयु की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है।
दो आयु की स्थिति को पूर्वकोटि प्रमाण बांधने के बाद अपनेअपने भव में आकर साताबहुल होकर अनुभव करे और जब तक उनकी अपवर्तना न करे तब तक उस साताबहुल जीव के उन दोनों के बंध के अंत में उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है।
विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में आयुचतुष्क की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता के स्वामियों का निर्देश किया है । उनमें से पहले देवायु और नरकायु के स्वामियों को बतलाते हैं
कोई जीव 'अद्धाजोगुक्कोसे हिं'--उत्कृष्ट बन्धकाल और उत्कृष्ट योग द्वारा देवायु एवं नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करे और बन्धने के बाद उनकी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता तब तक सम्भव है जब तक उन दोनों के उदय का पहला समय प्राप्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि
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