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________________ पंचसंग्रह : ५ चउरुवसामिय मोहं जसुच्चसायाण सुहुमखवगंते । जं असुभपगइदलियरस संकमो होइ एयासु ॥१६०॥ शब्दार्थ-चउरुवसामिय-चार बार उपशमन करके, मोहं-मोह का, जसुच्चसायाण-यशः कीति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की, सुहम-सूक्ष्मसंपराय, स्वगते-क्षपक के अन्तिम समय में, जं-क्योंकि, असुभपगइदलियस्सअशुम प्रकृतियों के दलिक का, संकमो-संक्रम, होइ-होता है, एयासुइनमें। गाथार्थ-चार बार मोहनीयकर्म का उपशम करके क्षय के लिए उद्यत सूक्ष्मसंपराय क्षपक के अन्तिम समय में यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। क्योंकि अशुभ प्रकृतियों के दलिक का इनमें संक्रम होता है। विशेषार्थ-गाथा में कारणोल्लेख पूर्वक यशःकीति आदि तीन शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता का स्वामित्व बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- 'चउरुवसामिय मोहं' चार बार मोहनीयकर्म का उपशमन करके शीघ्र कर्मों का क्षय करने के लिए तत्पर हुए उस गुणितकर्मांश क्षपक जीव के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है । इसका कारण यह है 'असुभपगइदलियस्स संकमो होइ एयासु' क्षपकोणि पर आरूढ़ हुआ जीब गुणसंक्रम द्वारा अशुभ प्रकृतियों के प्रभूत दलिकों को इन प्रकृतियों में संक्रांत करता है। इसीलिए सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में इन प्रकृतियों की उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता प्राप्त होती है। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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