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________________ बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३२ १५३ होता है । इसलिए दसवें गुणस्थान तक के जीव सकषायी और ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अकषायी कहलाते हैं। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों में वेदनीयकर्म ही एक ऐसा कर्म है जो अकषायी जीवों को भी बंधता है और शेष सात कर्म केवल सकषायी जीवों के ही बंध हैं । अकषायी जीवों के जो वेदनीयकर्म बंधता है, उसकी केवल दो समय की ही स्थिति होती है, पहले समय में उसका बंध होता है और दूसरे समय में उसका वेदन होकर निर्जरा हो जाती है । इसीलिए ग्रन्थकार ने 'मोत्तमकसाई तणुया' पद देकर यह स्पष्ट किया है कि यहाँ वेदनीय की जो स्थिति बतलाई है, वह कषायसहित जीव द्वारा बांधी गई वेदनीयकर्म की जघन्य स्थिति जानना चाहिए, अकषायी जीव के वेदनीय की नहीं समझना चाहिए । 'अट्ठट्ठ नामगोयाण' अर्थात् नाम और गोत्र कर्म की आठ मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है, अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अबाधाकाल और अबाधाकालहीन शेष निषेकरचनाकाल है तथा 'सेसयाणं मुहुत्ततो' यानी शेष रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु इन पांच कर्मों की अन्तर्मुहूर्त - अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति है । अन्तमुहूर्त अबाधाकाल' और अबाधाकाल से हीन निषेकरचना योग्य काल है । इस प्रकार मूलकर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए । अब इसी उत्कृष्ट और जघन्य के क्रम से पहले मूलकर्मों की उत्तरप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाते हैं । १ अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं । अतः स्थिति के अन्तर्मुहूर्त में अधिक समय वाले अन्तर्मुहूर्त को और अबाधाकाल के अन्तर्मुहूर्त में कम समयों वाले अन्तर्मुहूर्त को ग्रहण करने से जघन्य स्थिति के अन्तर्मुहूर्त में अन्तर्मुहूर्त का अबाधाकाल घटित होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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