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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३
२८३ है। इस प्रकार होने से आयुकर्म का उत्कृष्टादि रूप भाग भी उसके अनुसार ही होता है तथा जब अधिक स्थिति वाले आयुकर्म का बंध होता है, तब उसका भाग अधिक होता है और जघन्य स्थिति वाले के बंधने पर भाग भी जघन्य होता है । इस प्रकार योग और स्थिति के भेद से आयुकर्म के उत्कृष्टादि रूप विशेष भंग होना सम्भव हैं।
इसी कारण पूर्व गाथा में आयुकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबंध होने की प्रक्रिया का विचार किया गया है।
इस प्रकार से भाग-विभाग प्ररूपणा का विचार करने के अनन्तर अब सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। वह दो प्रकार की है-१ मूल प्रकृति विषयक और २ उत्तर प्रकृति विषयक । दोनों में से अल्प वक्तव्य होने से पहले मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं। मूल प्रकृति विषयक सादि-अनादि प्ररूपणा
मोहाउयवज्जाणं अणुक्कोसो साइयाइओ होइ । साई अधुवा सेसा आउमोहाण सव्वेवि ॥८३।।
शब्दार्थ-मोहाउयवज्जाणं-मोहनीय और आयु वर्जित कर्मों का, अणक्कोसो-अनुत्कृष्ट, साइयाइओ-सादि आदि भेदों वाला, होइ-होता है, साई-सादि, अधुधा-अधू व, सेसा-शेष विकल्प, आउमोहाण-आयु और मोहनीय के, सव्वेवि-सभी।
गाथार्थ-मोहनीय और आयु वजित छह कर्मों का अनुकृष्ट प्रदेशबंध सादि आदि चारों भेद वाला है और शेष जघन्यादि सादि, अध्र व हैं तथा आयु और मोहनीय के सभी प्रकार भो सादि और अध्र व हैं। विशेषार्थ- उत्कृष्ट आदि बंधप्रकारों का पूर्व में निर्देश किया जा चुका है । प्रदेशबंध के सन्दर्भ में भी उन्हीं बंधप्रकारों के सादि
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