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पंचसंग्रह : ५
विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में शंकाकार की शंका और उत्तरार्ध में उसके समाधान का प्रतिपादन किया गया है ।
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शंका का रूप इस प्रकार है
शंका- 'उक्कोसमाइयाणं आउम्मि न संभवो विसेसाणं अर्थात् आयुकर्म के सम्बन्ध में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य रूप विशेष-भेद सम्भव नहीं हैं । इसका कारण यह है कि जब आयुकर्म का बंध होता है तब आठों कर्मों का बंध होने से, उसके बंधकाल में मूल कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा उसे सदैव आठवां भाग प्राप्त होता है | अतः न्यायदृष्टि से विचार किया जाये तो सर्वदा उसके भाग में समान ही वर्गणायें प्राप्त होती हैं किन्तु अल्पाधिक नहीं। तो फिर उत्कृष्ट आदि विशेषों की संभवता कैसे हो सकती है ? किस रीति से मानी जा सकती है ?
इस प्रकार से शंका प्रस्तुत किये जाने पर आचार्य उसका समाधान करते हैं
समाधान - एवमिणं' अर्थात् तुमने जो कहा है, वैसा ही है कि आयुबंध के समय आठों कर्मों का बंध होने से मूल प्रकृति की अपेक्षा सदैव आयु को आठवां भाग प्राप्त होता है । इसलिए उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट आदि विशेषों का होना सम्भव नहीं है। हम भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मात्र आठवां भाग प्राप्त होने की अपेक्षा उसमें तुल्यरूपता - एक जैसापन है, होनाधिकता नहीं है। फिर भी आयुकर्म में उत्कृष्टादि रूप जो विशेष हैं वे योग और स्थिति के भेद से समझना चाहिये - 'इमो नेओ जोगट्ठिइविसेसा' । जिसका स्पष्ट आशय इस प्रकार है
जब जीव उत्कृष्ट योग में वर्तमान होता है, तब उत्कृष्ट प्रदेशअधिक से अधिक वर्गणाओं को ग्रहण करता है, मध्यम योग में मध्यम और जघन्य योग में जघन्य - कम से कम वर्गणाओं को ग्रहण करता
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