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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८२
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उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि ज्ञानावरण और अन्तराय के सिवाय प्रत्येक कर्म में स्वजातीय अबद्धमान प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा एवं अन्य नहीं बंधने वाले कर्म के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा प्रदेशबंध में वृद्धि होती है। ज्ञानावरण और अन्तराय की पांच-पांच प्रकृतियां होने और एक साथ उनका बंधविच्छेद होने से सजातीय प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा तो नहीं किन्तु परप्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा ही प्रदेशबंध में वृद्धि होती है । जब आयुकर्म सहित आठों कर्मों का बध होता हो, उस समय मोहनीय, वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु में सजातीय नहीं बंधने वाली प्रकृति के भाग के दलिकों के आने से और आयु का बंध न होता हो तब नहीं बंधने वाली स्व तथा पर प्रकृति के भाग के दलिकों की प्राप्ति द्वारा प्रदेशबंध में वृद्धि होती है। दर्शनावरणकर्म की जब सभी नौ प्रकृतियों का बंध होता हो तब तो स्वजातीय प्रकृतियों का भाग प्राप्त नहीं होता है किन्तु जब छह या चार का बंध होता है, तभी स्वजातीय भाग प्राप्त होता है।
पूर्वोक्त प्रकार से प्रदेशबंध में वृद्धि होने की प्रक्रिया का निर्देश करने के बाद अब आयु के विषय में शंकाकार की शंका और उसका समाधान प्रस्तुत करते हैं--
उक्कोसमाइयाणं आउम्मि न संभवो विसेसाणं । एवमिणं किंतु इमो नेओ जोगट्ठिइविसेसा ॥२॥
शब्दार्थ-उक्कोसमाइयाणं-उत्कृष्ट आदि की, आउम्मि-आयुकर्म में, न संभवो-संभावना नहीं है, विसेसाणं-विशेषों की, एवमिणं-यह इसी प्रकार है, किंतु-किन्तु, इमो-यह, नेओ-जानना चाहिये, जोगठ्ठिइविसेसा -योग और स्थिति के विशेष से।
गाथार्थ-उत्कृष्ट आदि विशेषों की आयुकर्म में संभावना नहीं है । यह इसी प्रकार है, किन्तु योग और स्थिति के विशेष से यह जानना चाहिये।
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