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________________ पंचसंग्रह : ५ अथवा बंधविधि के प्रसंग में उदय, उदीरणा और सत्ता के विवेचन करने के कारण को स्पष्ट किया है । 'बद्धस्सुदओ' अर्थात् बंधे हुए कर्म का अपना-अपना अबाधाकाल पूर्ण समाप्त होने के बाद उदय होता है और 'उदए उदीरणा' अर्थान उदय होने पर प्रायः उदीरणा अवश्य होती है। किन्तु जिस कर्म को अभी तक उदय, उदीरणा के द्वारा भोगकर नष्ट नहीं किया, उस शेष रहे कर्म की सत्ता होती है। इस प्रकार चारों का परस्पर सम्बन्ध होने से बंध के साथ-साथ उदयादिक का स्वरूप कहना भी आवश्यक होने से इस अधिकार में अनुक्रम से चारों के स्वरूप का विचार किया जायेगा। ___ अब क्रम-निर्देशानुसार सर्वप्रथम गुणस्थानों में मूलकों की बंधविधि का कथन करते हैं। गुणस्थानों में मूलकर्म बंधविधि जा अपमत्तो सत्तट्ठबंधगा सुहुमछण्हमेगस्स । उवसंतखीणजोगी सत्तण्हं नियट्टिमीसअनियट्टी ॥२॥ शब्दार्थ-जा-पर्यन्त तक, अपमत्तो- अप्रमत्तगुणस्थान, सत्तट्ठबंधगासात या आठ कर्म के बंधक, सुहुम-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवर्ती, छह-छह, एगस्स-एक के, उवसंतखोणजोगी-उपशान्तमाह, क्षीणमोह और सयोगि केवली गुणस्थानवर्ती, सत्तह-सात के, नियट्टि-निवृत्ति (अपूर्वकरण), मीसमिश्र, अनियट्टी-अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती । गाथार्थ- अप्रमत्तगुणस्थान तक जीव सात अथवा आठ कर्मों के बंधक हैं। सूक्ष्मसपंरायगुणस्थानवर्ती छह कर्म के, उपशान्त यहाँ 'प्रायः' शब्द रखने का कारण यह है कि उदीरणा के बिना भी उदय होता है। जैसे कि मतिज्ञानावरणादि इकतालीस प्रकृतियाँ । उदय के लिए उदीरणा की अपेक्षा नहीं होती है। किन्तु उदीरणा उदयसापेक्ष है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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