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५. बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार
बंधहेतु नामक चतुर्थ अधिकार की प्ररूपणा करने के पश्चात् अब क्रम-प्राप्त बंधविधि नामक पांचवें अधिकार को प्रारम्भ करते हैं। इस अधिकार में बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता का स्वरूप कहा जायेगा।
कदाचित् यह कहा जाये कि 'बंधस्य विधिः, बंधविधिः' बंध की विधि, स्वरूप, प्रकार वह बंधविधि, ऐसी व्युत्पत्ति होने से यहाँ केवल बंध के स्वरूप का ही प्रतिपादन करना चाहिये, लेकिन उदय, उदीरणा
और सत्ता का स्वरूप कहना योग्य नहीं, तो फिर यहाँ बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चारों के स्वरूप कथन की प्रतिज्ञा क्यों की है ? उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैंबद्धस्सुदओ उदए उदीरणा तदवसेसयं संतं । तम्हा बंधविहाणे भन्नते इइ भणियव्वं ॥१॥ शब्दार्थ-बद्धस्सुदओ-बद्ध का उदय होता है, उदए-उदय होने पर, उदीरणा-उदीरणा, तदवसेसयं-शेष की, संत-सत्ता, तम्हा-इसलिए, बंधविहाणे-बंधबिधान, भन्नते-कहने पर भी, इइ-इस कारण, भणियव्यंकहना चाहिये ।
गाथार्थ-बद्ध कर्म का उदय होता है और उदय होने पर उदीरणा होती है तथा शेष की सत्ता होती है । इस कारण परस्पर सम्बन्ध होने से बंधविधि कहने पर भी उन उदयादिक का भी स्वरूप कहना चाहिये। विशेषार्थ-ग्रन्थकार आचार्य ने गाथा में बंधविधि के साथ-साथ
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