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________________ बंधविधि प्ररूपणा अधिकार : गाथा २० ११५ इन पन्द्रह स्थानों में अवस्थितसत्कर्म पन्द्रह हैं। इसका कारण यह है कि समस्त सत्तास्थानों में कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अवस्थानस्थिरता संभव है और अल्पतर चौदह होते हैं। जिन्हें अट्ठाईस के सत्कर्मस्थान को छोड़कर शेष चौदह स्थान में समझना चाहिये तथा अट्ठाईस का सत्तास्थान रूप भूयस्कारसत्कर्म एक ही है। क्योंकि चौबीस के सत्तास्थान से अथवा छब्बीस के सत्तास्थान से अट्ठाईस के सत्तास्थान में आया जाता है । शेष सत्तास्थान भूयस्कर रूप नहीं हो सकते हैं । इसका कारण यह है कि अनन्तानुबंधिकषाय, सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय के सिवाय शेष प्रकृतियों की सत्ता का नाश होने के पश्चात् पुन: उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है तथा मोहनीयकर्म की समस्त प्रकृतियों की सत्ता का नाश होने के बाद पुनः उनकी सत्ता प्राप्त न होने से अवक्तव्य सत्कर्म घटित नहीं होता है । नामकर्म - इसके बारह सत्तास्थान हैं - १ तेरानवै प्रकृतिक, २ बानवै प्रकृतिक, ३ नवासी प्रकृतिक, ४ अठासी प्रकृतिक, ५ छियासी प्रकृतिक, ६ अस्सी प्रकृतिक, ७ उन्यासी प्रकृतिक, ८ अठहत्तर प्रकृतिक, ६ छियहत्तर प्रकृतिक. १० पचहत्तर प्रकृतिक, ११ नौ प्रकृतिक और १२ आठ प्रकृतिक | 1 जिनका विवरण इस प्रकार है १ कर्मप्रकृति में नामकर्म के बारह सत्त्वस्थान इस प्रकार हैं - १०३, १०२, ६६, ६५, ६३, ६०, ८६, ८४, ८३, ८२, ६ और ८ प्रकृतिक । इनमें अन्तर इतना ही है कि ये स्थान बंधननामकर्म के १५ भेद करके बताये हैं । दिगम्बर कर्म साहित्य में नामकर्म के तेरह सत्त्वस्थान बतलाये हैं । देखिए गो. कर्मकांड गाथा ६०६ और पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा २०८ । वे तेरह सत्त्वस्थान इस प्रकार है - ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६,७८, ७७, १० और ६ प्रकृतिक । Jain Education International - For Private & Personal Use Only →→→ www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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