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बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६
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संयम इन दोनों को एक साथ एक समय में ही प्राप्त करने वाले अविरतसम्यग्दृष्टि जीव को होता है। क्योंकि उनके बांधने वालों में वे ही अति विशुद्ध अध्यवसाय वाले हैं। - स्त्याद्धित्रिक, मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क इन आठ प्रकृतियों का सम्यक्त्व और संयम इन दोनों को युगपत् एक ही समय में प्राप्त करने के इच्छुक मिथ्यादृष्टि को चरम समय में जघन्य अनुभागबंध होता है। क्योंकि उन-उन प्रकृतियों के बंधकों में वे ही अतिनिर्मल परिणाम वाले हैं, इसलिये वे ही जघन्य अनुभागबंध के स्वामी हैं । वह जघन्य अनुभागबंध मात्र एक समय होने से सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अजघन्य है।
ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध उपशांतमोहगुणस्थान में नहीं होता है। इसी प्रकार संज्वलनचतुष्क का उपशमश्रेणि के सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में, निद्रा, प्रचला, उपघात, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, भय और जुगुप्सा का उपशमश्रेणि के अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में, प्रत्याख्यानावरणचतुष्क का प्रमत्तसंयत के, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क का देशविरतादि गुणस्थान में और स्त्याद्धित्रिकादि का मिश्रादि गुणस्थान में बंध विच्छेद होने के कारण नहीं होता है, किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है। इसलिये सादि है, उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वालों की अपेक्षा अनादि तथा ध्र व, अध्र व अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिए।
इस प्रकार से शुभ और अशुभ ध्र वबांधिनी प्रकृतियों के क्रमशः अनुत्कृष्ट और अजघन्य विकल्पों से शेष रहे विकल्प सादि और अध्र व हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है। तैजस आदि शुभ आठ ध्र वबंधिनी प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागगंध के सादि, अध्र व विकल्पों का विचार पूर्व में अनुत्कृष्ट विकल्प के प्रसंग में किया जा चुका है और जघन्य, अजघन्य संज्ञी मिथ्यादृष्टि को क्रमपूर्वक होते हैं। जो इस प्रकार हैं कि उत्कृष्ट संक्लेश में रहते जघन्य
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