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पंचसंग्रह : ५ समय मात्र ही होता है। एक समय मात्र ही होने से वह सादि और अध्र व है। उसके सिवाय शेष समस्त अनुभागबंध अनुत्कृष्ट है। वह उपशमश्रेणि में बंधविच्छेद होने के बाद नहीं होता है किन्तु वहाँ से गिरने पर होता है, इसलिये सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले की अपेक्षा अनादि और ध्र व, अध्रुव क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिए।
'अजहन्न असुभधुवियाणं' अर्थात् अशुभ ध्र वबंधिनी ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, उपघात, अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और अंतरायपंचक इन तेतालीस प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र व इस तरह चार प्रकार का है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिये__ ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का जघन्य अनुभागबंध क्षपक को सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में, संज्वलनकषायचतुष्क का अनिवृत्तिबादरगुणस्थान में वर्तमान क्षपक के उस-उस प्रकृति के बंधविच्छेद के समय में तथा निद्रा, प्रचला, उपघात, भय, जुगुप्सा और अप्रशस्त वर्णचतुष्क इन नौ प्रकृतियों का क्षपकश्रेणि के अपूर्वक रणगुणस्थान में उन-उन प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय होता है।
प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का जघन्य अनुभागबंध संयम को प्राप्त करने के अभिमुख देशविरति को स्वगुणस्थान के चरम समय में रहते हुए, अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का क्षायिक सम्यक्त्व और
१ वर्ण चतुष्क का शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की ध्र वबंधिनी प्रकृतियों में
ग्रहण करने से शुम ध्र वबं धिनी आठ और अशुभ ध्र वबंधिनी तेतालीस प्रकृतियों की संख्या बतलाई है। वैसे सामान्य से ४७ ध्र वबंधिनी प्रकृतियां हैं।
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