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बंधविधि- प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६
इस प्रकार मूल प्रकृतियों - सम्बन्धी सादि - अनादि प्ररूपणा जानना चाहिए ।' अब उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा करते हैं । उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा
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सुभधुवियाणणुक्कोसो चउहा अजहन्न असुभधुवियाणं । चत्तारिवि अधुवबंधीणं ॥ ६६ ॥
साई
अधुवासेसा
शब्दार्थ - सुभधुवियाण - शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अणुक्कोसोअनुत्कृष्ट, चउहा - चार प्रकार का अजहन्न - अजघन्य, असुभधुवियाणं - अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का, साई - सादि, अधुवा - अध्रुव, सेसा - शेष, चत्तारिचारों प्रकार, वि - भी, अधुवबंधीणं - अध्र ुवबंधिनी प्रकृतियों के । गाथार्थ- शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट और अशुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का अजघन्य अनुभागबंध चार प्रकार का है । शेष बंध सादि और अध्रुव हैं तथा अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के चारों प्रकार भी सादि और अध्रुव हैं ।
विशेषार्थ - गाथा में बंधप्रकृतियों के शुभ और अशुभ ऐसे दो विभाग करके उनकी सादि-अनादि प्ररूपणा की है । उनमें से पहले शुभ ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों का विचार करते हैं
'सुभधुवियाण' अर्थात् शुभ ध्रुवबंधिनी - तेजस, कार्मण, प्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु और निर्माण इन आठ प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट अनुभागबंध चउहा- सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव, इस तरह चार प्रकार का है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
उक्त आठों प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबंध क्षपक के अपूर्वकरण में तीस प्रकृतियों का जिस समय बंधविच्छेद होता है, उस समय एक
१ इसी प्रकार से दिगम्बर कर्मग्रथों में मूल कर्मप्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा की गई है । देखिये पंचसंग्रह, शतक अधिकार गाथा ४४२-४४३ ॥
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