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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७ ३२६ . इस प्रकार से प्रदेशबंध का वर्णन पूर्ण होने के साथ बंधविधि का विचार समाप्त हुआ और बंध के साथ उदय का क्रम जुड़ा हुआ है। क्योंकि प्रत्येक कर्मप्रकृति बंध होने के पश्चात् विपाक द्वारा अपना कार्य करके निर्जीर्ण होती है। विपाक के लिये उस-उस प्रकृति का उदय में आना आवश्यक है। अतः अब उदयविधि का प्रतिपादन करते हैं। उदयविधि उदयविधि का विचार प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम उदय के प्रकारों को बतलाते हैं होइ अणाई अणंतो अणाइसंतो धुवोदयाणुदओ। साइसपज्जवसाणो अधुवाणं तह य मिच्छस्स ॥६७।। शब्दार्थ-होइ-होता है, अणाइ अणंतो-अनादि-अनंत, अणाइसंतोअनादि-सांत, धुवोदयाणदओ-ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय, साइसपज्जवसाणो सादि-सांत, अधुवाणं--अध्र वोदया प्रकृतियों का, तह-तथा, य-और, मिच्छस्स-मिथ्यात्व का। गाथार्थ-ध्र वोदया प्रकृतियों का उदय अनादि-अनन्त और अनादि-सांत इस तरह दो प्रकार का है और अध्र वोदया प्रकृतियों तथा मिथ्यात्व का उदय सादि-सांत है। विशेषार्थ-बंध की तरह उदय में भी प्रकृतियां दो तरह की हैंध्र वोदया और अध्र वोदया। गाथा में इन दोनों तरह की प्रकृतियों के उदय के रूपों को बतलाया है। . उदयविधि से लेकर बंधन आदि आठ करणों के स्वरूप का विचार कर्मप्रकृति के आधार से किया जायेगा। कर्मप्रकृति के कर्ता श्री शिव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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