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________________ २२ पंचसंग्रह : ५ ही नहीं होता है । इसलिए इन अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क आदि सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा भी चौथे गुणस्थान तक ही होती है । ५. प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र, इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा देशविरत गुणस्थान तक ही होती है । क्योंकि प्रत्याख्यानावरणकषाय का उदय पांचवें गुणस्थान तक होता है किन्तु आगे के गुणस्थानों में उनकी क्षयोपशम रूप स्थिति हो जाने से उदय होता नहीं है तथा तिर्यंचों में आदि के पांच गुणस्थान सम्भव होने से तिर्यंचगति और तिर्यंचायु का उदय भी पांचवें गुणस्थान तक ही होता है । उद्योत नामकर्म' तिर्यंचगति का सहचारी होने से उसका उदय तथा नीचगोत्र का उदय भी तिर्यंचाश्रित होने से वह भी पांचवें गुणस्थान तक होता है । इसलिए इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा भी पांचवें गुणस्थान तक ही होती है । ६. स्त्यानद्धित्रिक और आहारकद्विक, इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होती है। इसका कारण यह है कि स्त्यानद्धि, निद्रा निद्रा और प्रचलाप्रचला ये तीन निद्रायें स्थूल प्रमाद रूप होने से अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में उनका उदय नहीं हो सकता है । इसलिए प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त उनका उदय होता है तथा आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों का उदय प्रमत्तसंयतगुणस्थान में आहारकशरीर करने वाले चौदह पूर्वधर के होता है ।" इसलिए इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत १ यद्यपि लब्धिजन्य वैक्रिय और आहारक शरीर में भी उद्योत का उदय होता है, परन्तु वह मनुष्यगति सहचारी नहीं है । अतः उसकी विवक्षा नहीं की है । २ यदि आहारकशरीर को करके उद्योत नामकर्म के बिना उनतीस और उद्योतनाम सहित तीस के उदय में वर्तमान कोई संयमी अप्रमत्तगुणस्थान में जाये तो वहाँ आहारकद्विक का उदय सम्भव है, परन्तु अल्पकाल होने से उनकी विवक्षा नहीं की है । अतः प्रमत्तगुणस्थान में ही उनका उदय ग्रहण किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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