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________________ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ २१ चतुरिन्द्रिय तथा स्थावर नामकर्म इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा सासादनगुणस्थान पर्यन्त होती है। क्योंकि अनन्तानुबंधी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही है और शेष एकेन्द्रिय जाति नाम कर्मादि प्रकृतियों के उदय वाले जीवों में करण-अपर्याप्त अवस्था में ही दूसरा गुणस्थान होता है, और उसके सिवाय सदैव पहला गुणस्थान है। इसलिए उन प्रकृतियों का उदय दूसरे गुणस्थान तक होने से उनकी उदीरणा भी दूसरे गुणस्थान तक होती है। ३. मिश्रमोहनीय कर्म का उदय तीसरे गुणस्थान में ही होने से, उसकी उदीरणा भी जब तक तीसरा गुणस्थान रहे तब तक होती है। ४. अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, देवायु, नरकायु, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति इन सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा अविरत सम्यक्दृष्टिगुणस्थान तक ही होती है। इसका कारण यह है कि अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का उदय चौथे गुणस्थान तक ही होता है, उसके बाद के गुणस्थानों में उनकी क्षयोपशम रूपस्थिति हो जाने से उदय नहीं होता है तथा देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विका का उदय देव और नारकों के आदि के चार गुणस्थान होने से इन चार गुणस्थानों तक ही उदीरणा होती है। किसी भी आनुपूर्वी नामकर्म का उदय विग्रहगति में होता है और वहाँ पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होते हैं, अन्य कोई गुणस्थान नहीं होते हैं। इसलिए मनुष्य और तिर्यंचानुपूर्वी नामकर्म का उदय भी तीसरे के सिवाय चतुर्थ गुणस्थान तक होता है तथा दौर्भाग्य, अनादेय और अयश कीर्ति नामकर्म का उदय देशविरत आदि गुणसम्पन्न जीवों के गुणनिमित्त से १ यहां भवधारणीय वैक्रियशरीर की विवक्षा होने से वैक्रियट्रिक में चार गुणस्थान कहे हैं, अन्यथा लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर का उदय तो सात गुणस्थानों तक सम्भव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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