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पंचसंग्रह : ५
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प्रमाद का उदय - प्रमत्त दशा छठे गुणस्थान तक ही पाई जाती है, इसलिये वहां तक ही उदीरणा हो सकती है। आगे के गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव - अप्रमत्त दशा होने से उदीरणा नहीं होती है ।
साता, असातावेदनीय और मनुष्यायु के बिना जो प्रकृतियां अयोगकेवल गुणस्थान में उदययोग्य हैं, उनकी उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त होती है । अर्थात् साता, असाता वेदनीय और मनुष्यायु के बिना शेष रही स, बादर, पर्याप्त, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम, सौभाग्य, आदेय, यशः - कीर्ति और उच्च गोत्र इन दस प्रकृतियों का अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदय है, परन्तु उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समयपर्यन्त होती है । अयोगिकेवलिगुणस्थान में योग का अभाव होने से अयोगि भगवान किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा नहीं करते हैं । तथा
पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों की उदीरणा उन-उन प्रकृतियों का जिस-जिस गुणस्थान तक उदय हो वहाँ तक होती है । लेकिन इतना ध्यान रखना चाहिये कि मात्र चरमावलिका में उदीरणा नहीं होती है, यानी किसी भी कर्मप्रकृति की जब भोगते-भोगते सत्ता में एक आवलिका स्थिति ही शेष रहे तब उदीरणा नहीं होती है ।
उक्त सामान्य नियम और अपवाद का संकेत करने के बाद अब इसका निर्देश करते हैं कि किस गुणस्थान पर्यन्त किन-किन प्रकृतियों की उदीरणा होती है।
१. मिथ्यात्वमोहनीय, आतप, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नाम इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान पर्यन्त होती है । क्योंकि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय पहले गुणस्थान में ही होता है और आतप आदि प्रकृतियों के उदय वाले जीवों के पहला हो गुणस्थान होता है ।
२. अनन्तानुबंधिकषाय चतुष्क, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,
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