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________________ २० पंचसंग्रह : ५ < प्रमाद का उदय - प्रमत्त दशा छठे गुणस्थान तक ही पाई जाती है, इसलिये वहां तक ही उदीरणा हो सकती है। आगे के गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव - अप्रमत्त दशा होने से उदीरणा नहीं होती है । साता, असातावेदनीय और मनुष्यायु के बिना जो प्रकृतियां अयोगकेवल गुणस्थान में उदययोग्य हैं, उनकी उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान पर्यन्त होती है । अर्थात् साता, असाता वेदनीय और मनुष्यायु के बिना शेष रही स, बादर, पर्याप्त, मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकर नाम, सौभाग्य, आदेय, यशः - कीर्ति और उच्च गोत्र इन दस प्रकृतियों का अयोगिकेवलिगुणस्थान में उदय है, परन्तु उदीरणा सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समयपर्यन्त होती है । अयोगिकेवलिगुणस्थान में योग का अभाव होने से अयोगि भगवान किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा नहीं करते हैं । तथा पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियों की उदीरणा उन-उन प्रकृतियों का जिस-जिस गुणस्थान तक उदय हो वहाँ तक होती है । लेकिन इतना ध्यान रखना चाहिये कि मात्र चरमावलिका में उदीरणा नहीं होती है, यानी किसी भी कर्मप्रकृति की जब भोगते-भोगते सत्ता में एक आवलिका स्थिति ही शेष रहे तब उदीरणा नहीं होती है । उक्त सामान्य नियम और अपवाद का संकेत करने के बाद अब इसका निर्देश करते हैं कि किस गुणस्थान पर्यन्त किन-किन प्रकृतियों की उदीरणा होती है। १. मिथ्यात्वमोहनीय, आतप, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नाम इन पांच प्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान पर्यन्त होती है । क्योंकि मिथ्यात्व मोहनीय का उदय पहले गुणस्थान में ही होता है और आतप आदि प्रकृतियों के उदय वाले जीवों के पहला हो गुणस्थान होता है । २. अनन्तानुबंधिकषाय चतुष्क, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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