SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३ बंधविधि-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ गुणस्थान तक ही होती है तथा साता, असातावेदनीय और मनुष्यायु का प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान के चरमसमय पर्यन्त केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है, यह पहले कहा जा चुका है। ७. सम्यक्त्वमोहनीय, अर्धनाराच, कीलिका और सेवात संहनन इन चार प्रकृतियों की उदीरणा अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त ही होती है। क्योंकि आगे के गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय के उपशमक या क्षपक जीव ही होते हैं और उनको क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यक्त्व होता है, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्वमोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में होता है। इसलिए उसकी उदीरणा भी वहाँ तक ही होती है और अन्तिम तीन संहननों के द्वारा कोई भी जीव श्रेणी आरम्भ नहीं कर सकता है एवं सातवें गुणस्थान तक जा सकता है। जिससे उनका उदय भी सातवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए उदीरणा भी सातवें गुणस्थान तक होती है। ८. हास्यषट्क की उदीरणा आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान तक होती है, किन्तु आगे के गुणस्थानों में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम होने से उदय नहीं होता है, इसलिए उदीरणा भी नहीं होती है। ६. वेदत्रिक, संज्वलन क्रोध, मान और माया इन छह प्रकृतियों की उदीरणा नौवें अनिवृत्तिकरणगुणस्थान पर्यन्त होती है। यहाँ उनका सर्वथा क्षय अथवा उपशम सम्भव होने से ऊपर के गुणस्थानों में उनकी उदीरणा नहीं होती है । १०. संज्वलन लोभ की उदीरणा दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होती है। इसमें भी उपशमश्रेणिगत सूक्ष्मसंपराय के चरम समय पर्यन्त और क्षपकश्रोणिगत चरमावलिका को छोड़कर शेषकाल में होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001902
Book TitlePanchsangraha Part 05
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages616
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy