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पंचसंग्रह : ५
११. ऋषभनाराच और नाराचसंहनन की उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। इसका कारण यह है कि ये दो संहनन वाले उपशमणि को मांड़कर इस गुणस्थान तक ही आ सकते हैं ।
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चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण, ज्ञानावरणपंचक और अन्तरायपंचक इन चौदह प्रकृतियों का उदय और उदीरणा क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है । मात्र चरमावलिका में उदीरणा नहीं होती है । 1
१३ - औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस्, कार्मण, संस्थानषट्क, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, प्रशस्तअप्रशस्त विहायोगति, पराघात, उपघात, अगुरुलघु, उच्छ् वास, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुःस्वर और निर्माण इन उनतीस प्रकृतियों की सयोगिकेवलिगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय और उदीरणा होती है ।
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कर्मस्वकार क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त निद्रा और प्रचला का उदय मानते हैं । इसीलिये उनके मत से क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय और उदीरणा चरमावलिका छोड़कर समझना चाहिये । पंचसंग्रहकार ने भी स्वोपज्ञ टीका में इसी मत को स्वीकार किया है— दर्शनषट्क ज्ञानान्तरायाणां क्षीणकषाय यावदुदयः उदीरणा च ।
दिगम्बर कर्मग्रन्थकारों ने भी क्षीणमोहगुणस्थान में सोलह प्रकृतियों की उदीरणा मानी है । उनमें निद्रा और प्रचला की द्विचरम समय में और चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क एवं अन्तराय पंचक इन चौदह प्रकृतियों की बतलाई है |
पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने उपशांतमोहगुणस्थान तक निद्रा और प्रचला की उदीरणा बतलाई है
ततस्तन्मतेन निद्राप्रचलयोरपि क्षीणमोहगुणस्थानक द्विचरम समयं यावदुदयावेदितव्यः स्वमतेनोपशांतमोहगुणस्थानकं यावत् ।
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